प्रकाशितकोशों से अर्थ

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शब्दसागर

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पाठा ^१ संज्ञा स्त्री॰ [सं॰] एक लता । पाढ़ । पाढा़ । विशेष—इसके पत्ते कुछ नोकदार गोल, फूल छोटे सफेद और फल मकोय के से होते हैं । फलों का रंग लाला होता है । यह दो प्रकार की होती है—छोटी और बडी़ । गुण दोनों के समान हैं । वैद्यक में यह कड़वी, चरपरी, गरम, तीखी, हलकी, टूटी हड्डियों को जोडनेवाली, पित्त, दाह, शूल, अतिसार, वातपित्त, ज्वर, वमन, विष, अजीर्ण, त्रिदोष, हृदयरोग, रक्तकुष्ठ, कंडु, श्वास, कृमि, गुल्म, उदररोग, व्रण और कफ तथा बात का नाश करनेवाली मानी गई है । बहुधा लोग घाव पर इसकी को बाँधे रहते हैं । वे समझते हैं कि इसके रहने से घाव बिगड़ या सड़ न सकेगा । इसकी सूखी जड़ मूत्राशय की जलन में लाभदायक होती है । पक्वा- शय की पीडा़ में भी इसका व्यवहार किया जाता है । जहाँ साँप ने काटा या बिच्छू ने डंक मारा हो वहाँ भी ऊपर से इसके बाँधने से लाभ होता है । पर्य्या॰—पाठिका । अंबष्टा । अंवष्ठिका । युथिका । स्थापनी । विद्धकर्णिका । दीपनी । वनतिक्तिका । तिक्तपुष्पा । वृहत्ति- क्ता । मालती । वरा । प्रतानिनी । रक्तघ्ना । विषहंत्री । महौजसी । वीरा । वल्लिका ।

पाठा ^२ संज्ञा पुं॰ [सं॰ पुष्ट, हिं॰ पट्ठा] [स्त्री॰ पाठी ]

१. वह जो जवान और परिपुष्ट हो । हृष्टपुष्ट । मोटा तगडा़ । जैसे, साठा तब पाठा ।

२. जवान बैल, भैंसा या बकरा ।