प्रकाशितकोशों से अर्थ

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शब्दसागर

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निंदा संज्ञा स्त्री॰ [सं॰ निन्दा]

१. (किसी व्यक्ति या वस्तु का) दोषकथन । बुराई का बर्णन । ऐसी बात का कहना जिससे किसी का दुर्गुण, दोष, तुच्छता, इत्यादि प्रगट हो । अपवाद । जुगुप्सा । कुत्सा । बदगोई ।

२. अपकीर्ति । बदनामी । कृख्याति । जैसे—ऐसी बात से लोक में निदा होती है । क्रि॰ प्र॰—करना ।—होना । विशेष—यद्यपि निंदा दोप के कथन मात्र को कह सकते है चाहे कथन यथार्थ हो चाहे अययार्थ पर मनुस्मृति में ऐसे दोष के कथन को 'निंदा' कहा है जो यथार्थ न हो । जो दोष वास्तव में ही उसके कथन को 'परीवाद' कहा है । कुल्लूक ने अपनी व्याख्या में कहा है कि विद्यमान दोष के अभिधान को 'परीवाद' ओर अविद्यमान दोष के अभिधान को 'निंदा' कहते हैं ।