नार
प्रकाशितकोशों से अर्थ
सम्पादनशब्दसागर
सम्पादननार ^१ संज्ञा स्त्री॰ [सं॰ नाल, नाड़]
१. गला । गरदन । ग्रीवा । मुहा॰—नार नवाना =(१) गरदन झुकाना । सिर नीचे की ओर करना । (२) लज्जा, चिंता, संकोच, मान आदि के कारण सामने न ताकना । दृष्टि नीची करना । लज्जित होने, चिंता करने या रूठने का भाव प्रकट करना । उ॰—समुझि निज अपराध करनी नार नावति नीचि । बहुत दिन तें बरति है कै आखि दीजै सींधि ।—सूर (शब्द॰) । नार नींचो करना = दे॰ 'नार नवाना' । उ॰—मान मनायो राधा प्यारी ।....कत ह्वै रही नार नीची करि देखत लोचन झूले । सूर (शब्द॰) ।
२. जुलाहों की ढरकी । नाल । ३, पु कमल की डंडी । मृणाल की नाल । उ॰—बरनौं गीवँ कूज कै रीसी । कंज नार जनु लागेउ सीसी ।—जायसी ग्रं॰, (गुप्त), पृ॰ १९२ ।
नार † ^२ संज्ञा पुं॰
१. उल्व नाल । आँवल नाल । वह गर्भस्थ सूत्र जिससे जन्म से पूर्व गर्भस्थ शिशु बँधा रहता है । वि॰ दे॰ 'नाल२' । यौ॰—नाद्द बेवार ।
२. नाला ।
३. बहुत मोटा रस्सा ।
४. सूत की डोरी जिससे स्त्रियाँ घाँघरा कसती हैं अथवा कहीं कहीं धोती की चुनन बाँधती हैं । नारा । नाला ।
५. जुबा जोड़ने की रस्सी या तस्मा ।
६. चरने के लिये जानेवाले चौपायों का झुंड ।
नार † ^३ संज्ञा स्त्री॰ [सं॰ नारी] दे॰ 'नारी' ।
नार ^४ संज्ञा पुं॰ [सं॰]
१. नरसमूह । मनुष्यों की भीड़ ।
२. तुरंत का जनमा हुआ गाय का बछड़ा ।
३. जल । पानी । उ॰— हम घट बिरह दून कै दहा । लोयन नार समुँद होइ बहा ।— चित्रा॰, पृ॰ १७१ ।
४. सोंठ । शुंठी ।
नार ^५ वि॰
१. नरसंबंधी । मनुष्यसंबंधी ।
२. परमात्मासंबंधी ।
नार ^६ संज्ञा पुं॰ [फा॰] अनार [को॰] ।
नार ^७ संज्ञा स्त्री॰ [अ॰]
१. आग । अग्नि । उ॰—भसम होवे एक दिन में धर दुख की नार ।—दक्खिनी॰, पृ॰ १४० ।
२. नरक (को॰) ।
नार बेवार † संज्ञा पुं॰ [हिं॰ नार + सं॰ बिवार (= फैलाव)] आँवला नाल । नाल और खेड़ी आदि । नारापोटी । उ॰—नार बेवार समेत उठावा । लै वसुदेव चले तम छावा ।—विश्राम (शब्द॰) ।