प्रकाशितकोशों से अर्थ

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शब्दसागर

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नाड़ी संज्ञा स्त्री॰ [सं॰ नाड़ी]

१. नली ।

२. साधारणतः शरीर के भीतर की वे नलियाँ जिनमें होकर रक्त बहता है, विशेषतः वे जिनमें हृदय से शुद्ध रक्त क्षण क्षण पर जाता रहता है । धमनी । विशेष— वे नलियाँ, जिनसे शरीर भर में रक्त का प्रवाह होता है, दो प्रकार की होती हैं— एक वे जो शुद्ध रक्त को हृदय से लेकर और सब अंगों को पहुँचाती है, दूसरी वे जो सब अंगों से अशुद्ध रक्त को इकट्ठा करके उसको हृदय में प्राणवायु के द्वारा शुद्ध होने के लिये लौटाकर ले जाती हैं । पहले प्रकार की नलियाँ ही विशेषतः नाड़ियाँ कहलाती हैं । क्योंकि स्पंदन अधिकतर उन्हीं में होता है । अशुद्ध रक्त को हृदय में पहुँचानेवाली नलियों या शिराओं में प्रायः स्पंदन नहीं होता । अशुद्ध रक्तवाहिनी शिराओं के द्वारा अशुद्ध रक्त हृदय के दाहिने कोठे में पहुँचता है, वहाँ से फिर वह फुफ्फुस में जाता हैं, फुफ्फुस में वह शुद्ध होता है । शुद्ध होने पर वह फिर हृदय के बाएँ कोठे में पहुँचता है । हृदय का क्षण-क्षण पर आकुंचन और प्रसारण होता रहता है—वह बराबर सिकुडता और फैलता रहता है । हृदय जिस क्षण सिकुड़ता है उसमें भरा हुआ रक्त वृहन्नाड़ी के खुले मुंह में क्षिप्त होता है और फिर बड़ी नाड़ी से उसकी शाखा प्रशाखाओं में पहुँचता है । सबसे पतली नाड़ियाँ इतनी सूक्ष्म होती हैं कि सूक्ष्मदर्शक यंत्र के बिना नहीं देखी जा सकतीं । नाड़ियाँ अधिकतर मांस और पीले तंतुओं की बनी हुई होती हैं । अतः इनमें लचीलापन होता है— ये खींचने से बढ़ जाती हैं । अधिक भर जाने अर्थात भीतर से जोर पड़ने पर ये फैलकर चौड़ी हो जाती है और जोर हटने पर फिर ज्यों की त्यों हो जाती हैं । हृदय का बायाँ कोठा सिकुड़कर बंडे़ वेग के साथ १ १/२ छँटाक रक्त बड़ी नाड़ी में ढकेलत हैं । नाड़ियों में तो हर समय रक्त भरा रहता है, अतः जब बड़ी नाड़ी में यह डेढ़ छटाँक रक्त पहुँचता है तब हृदय के समीप का भाग बढ़कर फैल जाता है । फिर जब रक्त का दूसरा झोंका हृदय से आता है तब उसके आगे का भाग फैलता है । इसी आकुंचन प्रसारण के कारण नाड़ियों में स्पंदन या गति होती है । यह स्पंदन बड़ी नाड़ियों में ही मालूम होता है, छोटी छोटी नलियों में नहीं; क्योंकि अत्यंत सूक्ष्म नाड़ियों में पहुँचते पहूँचते लहरों का वेग बहुत कम हो जाता है — और फिर जब शिराओं में यही रक्त अशुद्ध होकर पलटता है तब लहर रह ही नहीं जाती । जब कोई नाड़ी कट जाती है तब उसमें से रक्त उछल उछलकर निकलता है; जब कोई अशुद्ध रक्तवाहिनी शिरा कटती है तब उसमें से रक्त धीरे धीरे निकलता है । नाड़ियों के भीतर का रक्त लाल होता है पर अशुद्ध रक्तवाहिनी शिराओं के भीतर का रक्त कालापन लिए होता है । नाड़ियों का स्पंदन या फड़क इन स्थानों में उँगली दबाने से मालूम हो सकती है— कनपटी मे, ग्रीवा में के टेंटुए के दहने और बाएँ, उरुसंधि के बीच, पैर के अँगूठे की ओर के गट्टे के नीचे, शिश्न के ऊपर की तरफ, कलाई में और बाहु में (बगल की ओरवाले किनारे में) । नाड़ी एक मिनट में उतनी ही बार फड़कती है जितनी बार हृदय धड़कता है । नाड़ीपरीक्षा से हृदय और रक्तभ्रमण की दशा का ज्ञान होता है, उससे नाड़ियों और हृदय के तथा और भी कई अंगों के रोगों का पता लग जाता है । आयुर्वेद कै ग्रंथों में रक्तवाहिनी नलियों के स्पष्ट और ठीक विभाग नहीं किए गए हैं । सुश्रुत ने ७०० शिराएँ लिखी हैं जिनमें ४० मुख्य हैं— १० रक्तवाहिनी, १० कफवाहिनी, १० पित्तवाहिनी और १० वायुवाहिनी । इसके अतिरिक्त शुद्ध और अशुद्ध रक्त के विचार से कोई विभाग नहीं किया गया है । २४ धमनियों के जो ऊर्ध्वगामिनी, अधोगामिनी और तिर्यग्गामिनी ये तीन विभाग किए गए हैं, उनमें भी उपयुक्त विभाग नहीं हैं । सुश्रुत ने शिराओं और धमनियों का मूल स्थान नाभि बतलाया है । आधुनिक प्रत्यक्ष शारीरक की दृष्टि से कुछ लोगों ने शुद्ध रक्तवाहिनी नाड़ियों का 'धमनी' नाम रख दिया है । यह नाम सुश्रुत आदि के अनुकूल न होने पर भी उपयुक्त है क्योंकि धात्वर्थ का यदि विचार किया जाय तो 'धम' कहते हैं 'धौकने' या 'फूँकनै' को । जिस प्रकार धौंकनी फूलती और पचकती है उसी प्रकार शुद्ध रक्तवाहिनी नाड़ियाँ भी । दे॰ 'शिरा', 'धमनी' । नाड़िपरीक्षा का विषय भा सुश्रुत में नहीं मिलता है, इधर के ही ग्रंथों में मिलता है । आर्ष ग्रंथों में न होने पर भी पीछे आयुर्वेद में नाड़ीपरीक्षा को बड़ी प्रधानता दी गई, यहाँ तक की 'नाड़ीप्रकाश' नाम का स्वतंत्र ग्रंथ ही इस विषय़ पर लिखा गया । मुहा॰— नाड़ी चलना = कलाई की नाड़ी में स्पंदन या गति होना । विशेष— नाड़ी का उछलना प्राण रहने का चिह्न समझा जाता है और उसके अनूसार रोगी की दशा का भी पंता लगाया जाता है । नाड़ी छूट जाना = (१) नाड़ी का न चलना । दबाकर छून े से नाड़ी मे गति न मालूम होना । (२) प्राण न रह जाना । मृत्यु हो जाना । (३) संज्ञा न रहना । मूर्छा आना । बेहोशी आना । नाड़ी देखना = कलाई की नाड़ी दबाकर रोगी की अवस्था का पता लगाना । नाड़ीपरीक्षा करके रोगी का निदान करना । नाड़ी धरना या पकड़ना = दे॰ 'नाड़ी देखना' । नाड़ी दिखाना या धराना = रोग के निदान के लिये वैद्य से नाड़ीपरीक्षा कराना । नब्ज दिखाना । नाड़ी न बोलना = (१) नाड़ी न चलना । नाड़ी में गति न मालूम होना । (२) प्राण न रहना । (३) मूर्छा आना । बेहोशी आना ।

३. हठयोग के अनुसार ज्ञानवाहिनी, शक्तिवाहिनी और श्वास- प्रश्वास-वाहिनी नलियाँ । विशेष— योगियों का कहना है कि मेरुदंड या रीढ़ के एक इस तरफ और एक उस तरफ ऐसी दो नालियाँ हैं । इनमें जो बाई और है उसे इला या इड़ा और जो दाहिनी ओर हैं उसे पिंगला कहते हैं । इन दोनों के बीच में सुपु्म्ना नाम की नाड़ी हैं । स्वरोदय तथा तंत्र के अनुसार बाएँ नथुने से जो साँस आती जाती है वह इड़ा नाड़ी से होकर और दाहिनै नथुने से जो निकलती है वह पिंगला से होकर । यदि श्वास कुछ क्षण बाएँ और कुछ क्षण दहिने नथुने से निकले तो समझना चाहिए कि वह सुपुम्ना नाड़ी से आ रहा है । श्वास की गति के अनुसार स्वरोदय में शुभाशुभ फल भी कहे गए हैं । इड़ा नाड़ी में चंद्र की अवस्थिति रहती है और पिंगला में सूर्य की । अतः इड़ा का गुण शीत और पिंगला का उष्ण है । सुषु्म्ना नाड़ी त्रिगुणमयी और चंद्रसूर्याग्नि स्वरुपा है । यह नाड़ी ब्रह्मस्वरुपा है, इसी में जगत् प्रतिष्ठित है । बिना इन नाड़ियों के ज्ञान के योगा- भ्यास में सिद्धि नहीं प्राप्त हो सकती । जो योगाभ्यास करना चाहते हैं वे पहले इड़ा, फिर पिंगला और फिर सुषुम्ना को लेकर चलते हैं । सुषु्म्ना के सबसे नीचे के भाग को योगी कुंडलिनी मानते हैं जिसे जगाने का यत्न वे करते हैं । सच पूछिए तो उसी को जगाने के लिये ही योग का अभ्यास किया जाता है । जाग्रत होनेपर कुंडलिनी चंचल होकर सुषु्म्ना नाड़ी के भीतर भीतर सिर की और चढने लगती है और बारह चक्रों को पार करती हुई ब्रह्मरंध्र तक चली जाती है । जैसे जैसे वह ऊपर की ओर चढ़ती जाती है, योगी के सांसारिक बधन ढीले पड़ते जाते हैं और अलौकिक शक्तियाँ उसे प्राप्त होती जाती हैं, यहाँ तक कि मन और शरीर से उसका संबंध छूत जाता है और वह परमानंद में मग्न होकर परमात्मा का शुद्ध रुप देखने लगता है । निरुत्तर तंत्र में दस नाडियाँ लिखी हैं जिनमें ऊपर लिखी तीन मुख्य हैं । धेरंडसंहिता आदि योग के ग्रंथों को देखने से पता लगता है कि अँतड़ियाँ भी नाड़ियों के अंतर्गत मानी गई हैं । प्रक्षालन क्रिया में शक्तिवाहिनी नाड़ी को निकालकर उसके भीतर के मल को धोने का विधान है । यौ॰—नाड़ीब्रण ।

४. ब्रणरंध्र । नासूर का छेद ।

५. बंदूक की नली ।

६. काल का एक मान जो छह क्षण का होता है ।

७. गंडदूर्वा ।

८. वंशपत्री ।

८. किसी तृण का पोला डंठल ।

१०. छद्य । कपट । मक्कारी ।

११. वर वधू की गणना बैठाने में कल्पित चक्रों में स्थित नक्षत्रसमूह । दे॰ 'नाड़ीनक्षत्र' ।

१२. मृणाल, पद्यदड (को॰) ।

१३. घड़ी (को॰) ।

१४. फुँककर ब्याजा जानेवाला (वंशी आदि) वाद्य (को॰) ।

१५. चमड़े की नली (को॰) ।

१६. बुनकरों का एक औजार (को॰) ।