संज्ञा

नाटक पु॰

  1. अमिनय

अनुवाद

क्रिया

नाटक

  1. नाटक करना, अभिनय करना

अनुवाद

प्रकाशितकोशों से अर्थ

शब्दसागर

नाटक संज्ञा पुं॰ [सं॰]

१. नाटय या अभिनय करनेवाला । नट ।

२. रंगशाला में नटों की आकृति, हाव भाव, वेश और वचन आदि द्वारा घटनाओ का प्रदर्शन । वह दृश्य जिसमें स्वाँग के द्वारा चरित्र दिखाए जाएँ । अभिनय ।

३. वह ग्रंथ या काव्य जिसमें स्वाँग के द्वारा दिखाया जानेवाला चरित्र हो । दृश्यकाव्य, अभिनयग्रंथ । विशेष— नाटक की गिनती काव्यों में है । काव्य दो प्रकार के मान गे हैं— श्रव्य और दृश्य । इसी दृश्य काव्य का एक भेद नाटक माना गया है । पर मुख्य रूप से इसका ग्रहण होने के कारण दृश्य काव्य मात्र को नाटक कहने लगे हैं । भरतमुनि का नाटयशास्त्र इस विषय का सबसे प्राचीन ग्रंथ मिलता है । अग्निपुराण में भी नाटक के लक्षण आदि का निरूपण है । उसमें एक प्रकार के काव्य का नाम प्रकीर्ण कहा गया है । इस प्रकीर्ण के दो भेद है— काव्य और अभिनेय । अग्निपुराण में दृश्य काव्य या रूपक के २७भेद कहे गए हैं— नाटक, प्रकरण, डिम, ईहामृग, समवकार, प्रहसन, व्यायोग, भाण, वीथी, अंक, त्रोटक, नाटिका, सट्टक, शिल्पक, विलासिका, दुर्मल्लिका, प्रस्थान, भाणिका, भाणी, गोष्ठी, हल्लीशक, काव्य, श्रीनिगदित, नाटयरासक, रासक, उल्लाप्यक और प्रेक्षण । साहित्यदर्पण में नाटक के लक्षण, भेद आदि अधिक स्पष्ट रूप से दिए हैं । ऊपर लिखा जा चुका है कि दृश्य काव्य के एक भेद का नाम नाटक है । दृश्य काव्य के मुख्य दो विभाग हैं— रूपक और उपरूपक । रूपक के दस भेद हैं— रूपक, नाटक, प्रकरण, भाण, व्यायोग, समवकार, ड़िम, ईहामृग, अंकवीथी और प्रहसन । 'उपरूपक के अठारह भेद हैं— नाटिका, त्रोटक, गोष्ठी, सट्टक, नाटयरासक, प्रस्थान, उल्लाप्य, काव्य, प्रेक्षणा, रासक, संलापक, श्रीगदित, शिंपक, विलासिका, दुर्मल्लिका, प्रकरणिका, हल्लीशा और भणिका । उपर्युक्त भेदों के अनुसार नाटक शब्द दृश्य काव्य मात्र के अर्थ में बोलते हैं । साहित्यदर्पण के अनुसार नाटक किसी ख्यात वृत्त (प्रसिद्ध आख्यान, कल्पित नहीं)' की लेकर लिखाना चाहिए । वह बहुत प्रकार के विलास, सुख, दुःख , तथा अनेक रसों से युक्त होना चाहिए । उसमें पाँच से लेकर दस तक अंक होने चाहिए । नाटक का नायक धीरोदात्त तथा प्रख्यात वंश का कोई प्रतापी पुरुष या राजर्षि होना चाहिए । नाटक के प्रधान या अंगी रस श्रृंगार और वीर हैं । शेष रस गौण रुप से आते हैं । शांति, करुणा आदि जिस रुपक में में पधान हो वह नाटक नहीं कहला सकता । संधिस्थल में कोई विस्मयजनक व्यापार होना चाहिए । उपसंहार में मंगल ही दिखाया जाना चाहिए । वियोगांत नाटक संस्कृत अलंकार शास्त्र के विरुद्ध है । अभिनय आरंभ होने के पहले जो क्रिया (मंगलाचरण नांदी) होती है, उसे पूर्वरंग कहते हैं । पूर्वरंग, के उपरांत प्रधान नट या सूत्रधार, जिसे स्थापक भी कहते हैं, आकर सभा की प्रशंसा करता है फिर नट, नटी सूत्रधार इत्यादि परस्पर वार्तालाप करते हैं जिसमें खेले जानेवाले नाटक का प्रस्ताव, कवि-वंश-वर्णन आदि विषय आ जाते हैं । नाटक के इस अंश को प्रस्तावना कहते हैं । जिस इतिवृत्त को लेकर नाटक रचा जाता है उसे वस्तु कहते हैं । 'वस्तु' दो प्रकार की होती है—आधिकारिक वस्तु और प्रासंगिक वस्तु । जो समस्त इतिवृत्त का प्रधान नायक होता है उसे 'अधिकारी' कहते हैं । इस अधिकारी के संबंध में जो कुछ वर्णन किया जाता है उसे 'आधिकारिक बस्तु' कहते हैं; जैसे, रामलीला में राम का चरित्र । इस अधिकारी के उपकार के लिये या रसपुष्टि के लिये प्रसंगवश जिसका वर्णन आ जाता है उसे प्रासगिक वस्तु कहते हैं; जैसे सुग्रीव, आदि का चरित्र । 'सामने लाने' अर्थात् दृश्य संमुख उपस्थित करने को अभिनय कहते हैं । अतः अवस्थानुरुप अनुकरण या स्वाँग का नाम ही अभिनय है । अभिनय चार प्रकार का होता है— आंगिक, वाचिक, आहार्य और सात्विक । अंगों की चेष्टा से जो अभिनय किया जाता है उसे आंगिक, वचनों से जो किया जाता है उसे वाचिक, भैस बनाकर जो किया जाता हैं उसे आहार्य तथा भावों के उद्रेक से कंप, स्वेद आदि द्वारा जो होता है उसे सात्विक कहते हैं । नाटक में बीज, बिंदु, पताका, प्रकरी और कार्य इन पाँचों के द्वारा प्रयोजन सिद्धि होती है । जो बात मुँह से कहते ही चारों ओर फैल जाय और फलसिद्धि का प्रथम कारण हो उसे बीज कहते हैं, जैसे वेणीसंहार नाटक में भीम के क्रोध पर युधिष्ठिर का उत्साहवाक्य द्रौपदी के केशमोजन का कारण होने के कारण बीज है । कोई एक बात पूरी होने पर दूसरे वाक्य से उसका संबंध न रहने पर भी उसमें ऐसे वाक्य लाना जिनकी दूसरे वाक्य के साथ असंगति न हो 'बिंदु' है । बिच में किसी व्यापक प्रसंग के वर्णन को पताका कहते हैं— जैसे उत्तरचरित में सुग्रीव का और अभिज्ञान- शांकुतल में विदूषक का चरित्रवर्णन । एक देश व्यापी चरित्रवर्णन को प्रकरी कहते हैं । आरंभ की हुई क्रिया की फलसिद्धि के लिये जो कुछ किया जाय उसे कार्य कहते हैं; जैसे, रामलीला में रावण वध । किसी एक विषयकी चर्चा हो रही हो, इसी बीच में कोई दूसरा विषय उपस्थित होकर पहले विषय से मेल में मालूम हो वहाँ पताकास्थान होता है, जैसे, रामचरित् में राम सीता से कह रहे हैं—'हे प्रिये ! तुम्हारी कोई बात मुझे असह्य नहीं, यदि असह्य है तो केवल तुम्हारा विरह, इसी वीच में प्रतिहारी आकर कहता है : देव ! दुर्मुख उपस्थित । यहाँ ' उपस्थित' शब्द से 'विरह उपस्थित' ऐसी प्रतीत होता है, और एक प्रकार का चमत्कार मालूम होता है । संस्कृत साहित्य में नाटक संबंधी ऐसे ही अनेक कौशलों की उदभावना की गई है और अनेक प्रकार के विभेद दिखाए गए हैं । आजकल देशभाषाओं में जो नए नाटक लिखे जाते हैं उनमें संस्कृत नाटकों के सब नियमों का पालन या विषयों का समावेश अनावश्यक समझा जाता है । भारतेंदु हरिश्चंद्र लिखते हैं—'संस्कृत नाटक की भाँति हिंदी नाटक में उनका अनुसंधान करना य़ा किसी नाटकांग में इनको यत्नपूर्वक रखकर नाटक लिखना व्यर्थ है; क्योंकि प्राचीन लक्षण रखकर आधुनिक नाटकादि की शोभा संपादन करने से उलटा फल होता है और यत्न व्यर्थ हो जाता है । भारतवर्ष में नाटकों का प्रचार बहुत प्राचीन काल से हैं । भरत मुनि का नाटयशास्त्र बहुत पुराना है । रामायण, महाभारत, हरिवंश इत्यादि में नट और नाटक का उल्लेख है । पाणिनि ने 'शिलाली' और 'कृशाश्व' नामक दो नटसूत्रकारों के नाम लिए हैं । शिलाली का नाम शुक्ल यजुर्वेदीय शतपथ ब्राह्मण और सामवेदीय अनुपद सूत्र में मिलता हैं । विद्वानों ने ज्योतिष की गणना के अनुसार शतपथ ब्राह्मण को ४००० वर्ष से ऊपर का बतलाया है । अतः कुछ पाश्चात्य विद्वानों की यह राय कि ग्रीस या यूनान में ही सबसे पहले नाटक का प्रादुर्भव हुआ, ठीक नहीं है । हरिवंश में लिखा है कि जब प्रद्यु्म्न, सांब आदि यादव राजकुमार वज्रनाभ के पुर में गए थे तब वहाँ उन्होंने रामजन्म और रंभाभिसार नाटक खेले थे । पहले उन्होंने नेपथ्य बाँधा था जिसके भीतर से स्त्रियों ने मधुर स्वर से गान किया था । शूर नामक यादव रावण बना था, मनोवती नाम की स्त्री रंभा बनी थी, प्रद्युम्न नलकूबर और सांब विदूषक बने थे । विल्सन आदि पाश्चात्य विद्वानों ने स्पष्ट स्वीकार किया हैं कि हिंदुओं ने अपने यहाँ नाटक का प्रादुर्भाव अपने आप किया था । प्राचीन हिंदू राजा बडी बडी रंगशालाएँ बनवाते थे । मध्यप्रदेश में सरगुजा एक पहाड़ी स्थान है, वहाँ एक गुफा के भीतर इस प्रकार की एक रंगशाला के चिह्न पाए गए हैं । यह ठीक है कि यूनानियों के आने के पूर्व के संस्कृत नाटक आजकल नहीं मिलते हैं, पर इस बात से इनका अभाव, इतने प्रमाणों के रहते, नहीं माना जा सकता । संभव है, कलासंपन्न युनानी जाति से जब हिंदू जाति का मिलन हुआ हो तब जिस प्रकार कुछ और और बातें एक ने दूसरे की ग्रहण कीं इसी प्रकार नाटक के संबंध में कुछ बातें हिंदुओं ने भ ी अपने यहाँ ली हों । बाहयपटी का 'जवनिका' (कभी कभी 'यवनिका') नाम देख कुछ लोग यवन संसर्ग सूचित करते हैं । अंकों में जो 'दृश्य' संस्कृत नाटकों में आए हैं उनसे अनुमान होता है कि इन पटों पर चित्र बने रहते थे । अस्तु अधिक से अधिक इस विषय में यही कहा जा सकता है कि अत्यंत प्राचीन काल में जो अभिनय हुआ करते थे । उनमें चित्रपट काम में नहीं लाए जाते थे । सिकंदर के आने के पीछे उनका प्रचार हुआ । अब भी रामलीला, रासलीला बिना परदों के होती ही हैं ।