प्रकाशितकोशों से अर्थ

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शब्दसागर

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नरक संज्ञा पुं॰ [सं॰]

१. पुराणों और धर्मशास्त्रों आदि के अनुसार वह स्थान जहाँ पापी मनुष्यों की आत्मा पाप का फल भोगने के लिये भेजी जाती है । वह स्थान जहाँ दुष्कर्म करनेवालों की आत्मा दंड देने के लिये रखी जाती है । दोजख । जहन्नुम । विशष—अनेक पुराणों और धर्मशास्त्रों में नरक के संबंध में अनेक बातें मिलती हैं । परंतु इनसे अधिक प्राचीन ग्रंथों में नरक का उल्लेख नहीं है । जान पड़ता है कि वैदिक काल में लोगों में इस प्रकार की नरक की भावना नहीं थी । मनुस्मृति में नरकों को संख्या २१ बतलाई गई है जिनके नाम ये हैं— तामिस्त्र, अंधनामिस्त्र, रौरव, महारौरव, नरक, महानरक, कालसुत्र, संजीवन, महावीचि, तपन, प्रतापन, संहात, काकोल, कुड्मल, प्रतिमुर्तिक, लोहशंकु, ऋजीष, शाल्मली, वैतरणी, असिपत्रवन और लोहदारक । इसी प्रकार भागवत में भी २१ नरकों का वर्णन है जिनके नाम इस प्रकार हैं—तामिस्त्र, अंधतामिस्त्र, रौरव, महारौरव, कुंभीपाक, कालसुत्र, असिपत्रवन, शूकरमुख, अंधकुप, कृमिभोजन, संदेंश, तप्तशुर्मि, वज्रकंटक- शाल्मली, वैतरणी, पुयोद, प्राणरोध, विशसन, लालभक्ष, सारमेयादन, अवीची और अयःवान । इसके अतिरिक्त क्षार- मर्दन, रसोगणभोजन, शुलप्रोत, दंदशुक, अवटनिरोधन, पर्यावर्तन और सुचीमुख ये सात नरक और भी माने गए हैं । इसके अतिरिक्त कुछ पुराणों में और भी अनेक नरककुंड माने गए हैं जैसे,—वसाकुंड, तप्तकुंड, सुर्यकुंड, चक्रकुंड । कहते हैं, भिन्न भिन्न पाप करने के कारण मनुष्य की आत्मा को भिन्न भिन्न नरकों में सहस्त्रों वर्ष तक रहना पड़ता है जहाँ उन्हें बहुत अधिक पीड़ा दी जाती है । मुसालमानों और ईसाइयों में भी नरकत की कल्पना है, परंतु उनमें नरक के इस प्रकार के भेद नहीं हैं । उनके विश्वाल के अनुसार नरक में सदा भीषण आग जलती रहती है । वे स्वर्ग को ऊपर और नरक को नीचे (पाताल में) मानते हैं । मुहा॰—नरक होना = नरक मे भेजा जाना । नरक भोगने का दंड होना । क्रि॰ प्र॰—भोगना ।

२. बहुत ही गंदा स्थान ।

३. वह स्थान जहाँ बहुत ही पीड़ा या कष्ट हो ।

४. पुराणानुसार कलि के पौत्र का नाम जो कलि के पुत्र भय और कलि की पुत्री मृत्यु के गर्भ से उत्पन्न हुआ था और जिसने अपनी बहन यातना के साथ विवाह किया था ।

५. विप्रचित्ति दानव के एक पुत्र का नाम ।

६. निकृत कते गर्भ से उत्पन्न अनृत के एक पुत्र का नाम ।

७. दे॰ 'नरकासुर' ।