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प्रकाशितकोशों से अर्थ सम्पादन

शब्दसागर सम्पादन

नक्षत्रगण संज्ञा पुं॰ [सं॰] फलित ज्योतिष में कुछ विशिष्ट नक्षत्रों का अलग अलग समूह या गण । विशेष—बृहत्संहिता में लिखा है कि रोहिणी, उत्तराषाढ़ा, उत्तरभाद्रपद और उत्तरफाल्गुनी इन चारों नक्षत्रों को ध्रुवगण कहते हैं । ध्रुवगण में अभिचक्र, शांति, वृक्ष, नगर धर्म, बीज और ध्रुव कार्य का आरंभ करना उचित है । मुल, आर्दा, ज्येष्ठा और आश्लेषा के स्वामी तीक्ष्ण हैं इसलिये इनके समूह को तीक्ष्णगण कहते हैं । इनमें अभि- घात, मंत्रसाधन, वेताल, बंध, वध, और भेद संबंधी कार्य सिद्ध होते हैं । पुर्वाषाढ़ा, पूर्वफाल्गुनी, पूर्वभाद्रपद, मरणी और मघा ये पाँचो नक्षत्र उग्रगण कहलाते हैं, उजाड़ने, नष्ट करने, शठता करने, बंदन विष, दहन और शस्त्राघात आदि की सिद्धि के लिये इस गण के नक्षत्र बहुत उपयुक्त हैं । हस्त, अश्विनी और पुष्य के समूह को लघुगण कहते हैं, इसमें पुण्य, रति, ज्ञान, भूषण, कला, शिल्प आदि के कार्य की सिद्धि होती है । अनुराधा, चित्रा, मृगशिरा और रेवती को मृदुगण कहते हैं और ये वस्त्र, भूषण, मंगल गीत और मित्र आदि के संबंध में हितकारी और उपयुक्त हैं । विशाखा और कृतिका को मृदुतीक्ष्णगण कहते हैं, इनका फल मृदु और तीक्ष्ण गणों के फल का मिश्रण होता है । श्रवण, धनिष्ठा शतभिषा, पुनर्वसु और स्वाति ये पाँचों 'चरगण' कहलाते हैं, और इनमें चरकर्म हितकारी होता है ।