क्रिया

किसी पर मग्न होकर उसके बारे में सोचना

प्रकाशितकोशों से अर्थ

शब्दसागर

ध्यान संज्ञा पुं॰ [सं॰]

१. बाह्म इंद्रियों के प्रयोग कि बिना केवल मन में लाने की क्रिया या भाव । अतःकरण में उपस्थित करने की क्रिया या भाव । मानसिक प्रत्यंक्ष । जैसे, किसी देवता का ध्यान करना, किसी प्रिय व्यक्ति का ध्य़ान करना । उ॰— बहुरि गौरि कर ध्यान करेहु । भूप किशोर देखि किन लेहु? —तुलसी (शब्द॰) । क्रि॰ प्र॰— करना । —लगना ।— लगाना । मुहा॰— ध्यान में डुबाना या मग्न होना = कोई बात इतना मन में लाना कि और सब बातें भुल जायँ । ध्यान धरना= मन में स्थापित करना । स्वरुप आदि को मन में लाना । (किसी के ) ध्यान में लगना= मन में लाकर मन्न होना । उ॰— परसन पोंछत लखि रहत लगि कपोल के ध्यान । कर लै पिय पाटल विमल प्यारी पठए पान ।—बिहारी (शब्द॰) ।

२. सोच विचार । चिंतन । मनन । जैसे,— आजकल तुम किस ध्यान में रहते हो ।

३. भावना । प्रत्यय । विचार । ख्याल । जैसे,— (क) चलते समय तुम्हें यह ध्यान न हुआ कि धोती लेते चलें ? । (ख) मन में इस बात का ध्यान बना रहता है । क्रि॰ प्रं॰— होना । मुहा॰— ध्यान आना = भावना होना । विचार उत्पन्न होना । ध्यान जमना = विचार स्थिर होना । खयाल बैठना । ध्य़ान बँधना = विचार का बराबर या बहुत देर तक बना रहना । लगातार खयाल बना रहना । जैसे— उसे जिस बात का ध्यान बंध जाता है, वह उसके पोछे पड़ जाता है । ध्यान रखना = विचार बनाए रखना । न भुलना । ध्य़ान लगना = मन में विचार बराबर बना रहना । बराबरा खयाल बना रहना । जैसे, मुझे तुम्हारा ध्य़ान बराबर लगा रहता है । उ॰— ध्यान लगो मोहि तोरा रे ।— गीत (शब्द॰) ।

४. रूपों या भावों की भीतर लेने या उपस्थित करनेवाला अंतः करण विधान । चित्त की ग्रहण बृत्ति । चित्त । मन । जैसे,— तुम्हारे ध्यान में यह बात कैसे आई कि मैने तुम्हारे साथ ऐसा किया होगा । क्रि॰ प्र॰— में आना । —में लाना । मुहा॰— ध्यान में न लाना = (१) चिंता न करना । परवाह न करना । (२) न सोचना समझना । न विचारना ।

५. चित्त का अकेले या इंद्रियों के सहित किसी विषय की ओर लक्ष्य जिससे उस बिषय का स्थान अंतःकरण में सबके ऊपर हो जाय । किसी के संबंध में अंतःकरण की जाग्रत स्थिति, चेतना की प्रववृत्ति । चेत । खयाल । जैसे,— (क)इसकी कारी- गरी को ध्यान से देखो तब खूबी मालूम होगी । (ख) मेरा ध्यान दूसरी ओर था, फिर से कहिए । (ग) इधर ध्यान दो और सुनो । मुहा॰— ध्यान जमना=मन का एक ही विषय के ग्रहण में बराबर तत्पर रहना । खयाल इधर उधर न जाना । चित्त एकाग्र होना । ध्यान जाना=चित्ता का किसी ओर प्रवृत्त होना । द्दष्टि पड़ना और बोध होना । जैसे,— जब मेरा ध्यान उधर गया तब मैने उसे टहलते देखा । ध्यान दिलाना= दूसरे का चित्ता प्रवृत करना । खयाल कराना, दिखाना या जताना । चेत कराना । चेताना । सुझाना । ध्यान देना= (अपना) चित्त प्रवृत्त करना । चित्त प्रवृत्त करना । चित्त एकाग्र करना । खय़ाल करना । गौर करना । ध्यान पर चढ़ना =मन में स्थान कर लेना । चित्त से न हटना । अच्छे लगने या और किसी विशेषता के कारण न भुलना । जैसे,— तुम्हारे ध्यान पर तो वही चीज चढ़ी हुई है, और कोई चीज पसंद ही नहीं आती । ध्यान बँटना=चित्त का इधर भी रहना उधर भी । चित्त एकाग्र न रहना । खयाल इधर उधर होना । जैसे —काम करते समय कोई बातचीत करता है तो ध्यान बँट जाता है । ध्यान बँटाना=चित्त को एकाग्र न रहने देना । खयाल इधर उधर ले जाना । ध्यान बंधना= किसी ओर चित्त स्थिर होना । चित्त एकाग्र होना । ध्यान लगाना=चित्त प्रवृत्त होना । मन का विषय के ग्रहण से तत्पर होना । चित्त एकाग्र होना । जैसे, —उसका ध्यान लगे तब तो वह पढ़े । ध्यान लगाना=दे॰ "ध्यान देना' ।

६. बोध करनेवाली वृत्ति । समझ । बुद्धि । मुहा॰— ध्यान पर चढ़ना=दे॰ 'ध्यान मे आना' । ध्यान में जमाना=मन में बैठना । चित्त में निश्चिंत होना । विश्वास के रूप में स्थिर होना ।

७. धारण । स्मृति । य़द । क्रि॰ प्रं॰— होना । मुहा॰— ध्यान आना=स्मरण होना । याद होना । ध्यान दिलाना=स्मरण कराना । यद दिलाना । जैसे, —जब भुलोगे तब तुम्हें ध्यान दिला देगें । ध्यान पर चढ़ाना= स्मृति में आना । स्मरण होना । याद होना । ध्यान रहना= स्मृति में न रहना । याद न रहना । विस्मृत होना । भूलना ।

८. चित्त को चारो ओर से हटाकर किसी एक विषय (जैसे, परमात्मचिंतन) पर स्थिर करने की क्रीया । चित्त को एकाग्र करके किसी और लगाने की क्रिया । जैसे, योगियों का ध्य़ान लगाना । विशेष— योग के आठ अंगों में 'ध्यान' सातबाँ अंग है । यह धारण और समाधि के बीच की अवस्था है । जब योगी प्रत्य़ाहार दारा क्षपने चित्त की वृत्तियों पर अधिकार प्राप्त क र लेता है तब उन्हें चारों ओर से हटाकर नाभि आदि स्थानों में से किसी एक में लगाता है । इसे धारण कहते है । धारण जब इस अवस्था को पहुँचती है कि धारणीय वस्तु के साथ चित्त के प्रत्यय की एकतानता हो जाती है तब उसे ध्यान कहते है । यही ध्यान जब चरमावस्थों को पहुँच जाता है तब समाधि कहलाता है जिसमें ध्येय के अतिरिक्त और कुछ नहीं रह जाता अर्थात् ध्याता ध्येय में इतना तन्मय हो जाता है कि उसे अपनी सत्ता भूल जाती है । बोद्ध और जैन धमों में भी ध्यान एक आवश्यक अंग है । जैन शास्त्र के अनुसार उत्तम संहनन युक्त चित्त के अवरोध का नाम ध्यान हैं । क्रि॰ प्र॰— करना ।—लगना ।— लगाना । मुहा॰— ध्यान छुटना=चित्त की एकाग्रता का नष्ट होना । चित्त इधर उधर हो जाना । उ॰—रोवन लग्यो सुत मृतक जान । रूदन करत छुटयों ऋषि ध्यान ।—सुर (शब्द॰) । ध्यान धरना=ध्यान लगाना । परमात्मचिंतन आदि के लिये चित्त को एकाग्र करके बैठना ।

ध्यान ^१ संज्ञा पुं॰ [सं॰]

१. दमनक । दौना ।

२. गंधतृण ।