संज्ञा

धर्म पु॰

अनुवाद

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प्रकाशितकोशों से अर्थ

शब्दसागर

धर्म संज्ञा पुं॰ [सं॰] किसी वस्तु या व्याक्ति की वह वृत्ति जो उसमें सदा रहे, उससे कभी अलग न हो । प्रकृति । स्वभाव, नित्य नियम । जैसे, आँख का धर्म देखना, शरीर का धर्म क्लांत होना सर्प का धर्म् काटना, दुष्ट का धर्म दुःख देना । विशेष—ऋग्वेद (१ । २२ । १८) में धर्म शब्द इस अर्थ में आया है । यह अर्थ सबसे प्राचीन है ।

२. अलंकार शास्त्र में वह गुण या वृत्ति जो उपमेय और उपमान में समान रूप से हो । वह एक सी बात जिसके कारण एक वस्तु की उपमा दूसरी से दी जाती है । जैसे, कमल के ऐसे कोमल और लाल चरंण, इस उदाहरण में कोमलचा और ललाई साधारण् धर्म है ।

३. किसी मान्य ग्रँथ, आचार्य़ या ऋषि द्बारा निदिष्ट वह कर्म या कृत्य जो पारलौकिक सुख की प्राप्पि के अर्थ किया जाय । वह कृत्य विधान जिसका फल शुम (स्वर्ग या उत्तम लोक की प्राप्ति आदि) बताया गया हो । जैसे, अग्निहोत्र । यज्ञ, व्रत, होम इत्यादि । शुभद्दष्टि । क्रि॰ प्र॰—करना ।—होना । यौ॰—धर्म कर्म । विशेष—मीमांसा के अनुसार वेदविहित जो यज्ञादि कर्म है उन्हीं का विधिपूर्वक अनुष्ठान धर्म है । जैमिनि ने धर्म का जो लक्षण दिया है उसका अभिप्राय यही है कि जिसके करने की प्रेरणा (वेद आदि में) हो, वही धर्म है । संहिता से लेकर सूत्रग्रंथों तक धर्म की यही मुख्य भावना रही है । कर्मकांड़ का विधिपूर्वक अनुष्ठान करनेवाले ही धार्मिक कहे जाते थे । यद्दापि श्रुतियों में 'न हिस्यात्सर्वभूतानि' आदि वाक्यों द्वारा साधारण धर्म का भी उपदेश है पर वैदिक काल में विशेष लक्ष्य कर्मकाड़ ही की ओर था ।

४. वह कर्म जिसका करना किसी संबंध, स्थिति या गुणाविशेष के विचार से उचित औरर आवश्यक हो । वह कर्म या व्यापार जो समाज के कार्यबिभाग के निर्वाह के लिये अवश्यक और उवित हो । वह काम जिसे मनुष्य़ को किसी बिशेष कोटि या अवस्था में होने के कारण अपने निर्वाह तथा दूसरों की सुगमता के लिय़े करना चाहिए । किसी जाति, कुल, वर्ग, पद इत्यादि के लिये उचित ठहराया हुआ व्यवसाय या व्यबहार । कर्तव्य़ । फर्ज । जैसे, ब्राह्मण का धर्म, क्षत्रिय का धर्म माता पिता का धर्म, पुत्र का धर्म इत्यादि । विशेष—स्मृतियों में आचार ही को परम धर्म कहा है और वर्ण और आश्रम के अनुसार उसकी व्यवस्था की है, जैसे ब्राह्मण के लिय़े पढ़ना, पढ़ाना, दान, लेना, दान देना, यज्ञ करना, यज्ञ कराना, क्षत्रिय के लिये प्रजा की रक्षा करना, दान देना, वैश्य के लिये व्यापार करना और शूद के लिये तीनों वणों की सेवा करना । जहाँ देश काल की विपरीतता से अपने अपने वर्ण के धर्म द्बारा निर्वाह न हो सके वहाँ शास्त्रकारों ने आपद्बर्म की व्यवस्था की है जिसके अनुसार किसी वर्ण का मनुष्य अपने से निम्न वर्ण की वृत्ति स्वीकार कर सकता है, जैसे ब्राह्मण—क्षत्रिय या वैश्य की, क्षत्रिय—वैश्य की, वैश्य या शूद्र—शूद्र की, पर अपने से उच्च वर्ण की वृत्ति ग्रहण करने का आपत्काल में भी निषेध है । इसी प्रकार ब्रह्मचारी, गुह्स्थ, वानप्रस्थ, और संन्यासी इनके धर्मो का भी अलग अलग निरूपण किया गया है । जैसे व्रह्मचारी के लिये स्वाध्याय, भिक्षा माँगकर भोजन, जंगल से लकड़ी चुनकर लाना, गुरु की सेवा करना इत्यादि । गृहस्थ के लिये पंच महायज्ञ, बलि अतियियों को भोजन और भिक्षुक, संन्यासियों आदि को भिक्षा देना इत्यादि । वानप्रस्थ के लिये सामग्री सहित गृह अग्नि को लेकर वन में वास करना, जटा, लक्ष श्मश्रु आदि रखना भूगि पर सोना, शीत- ताप सहना, धग्निहोत्र दर्शपौर्शमास, बलिकर्म आदि करना इत्यादि । संन्यासी के लिय़े सब वस्तुओं को त्याग अग्नि और गृह से रहित होकर भिक्षा द्बारा निर्वाह करना, नख आदि को कटाए और दड कमंडलु लिए रहना । यह तो वर्ण और आश्रम के अलग अलग धर्म हुए । दन दोनों के संयुक्त धर्म को वर्णाश्रम धर्म कहते हैं । जैसे ब्राह्मण ब्रह्मचारी का पलाशदंड़ धारण करना । जो धर्म किसी गुण या विशेषता के कारण हो उसे गुणधर्म कहते हैं—जैसे जिसका शास्त्रोक्त रीति से अभिषेक हुआ हो, उस राजा का प्रजापालन करना । निमित्त धर्म वह है जो किसी निमित से किया जाय । जैसे शास्त्रोक्त कर्म न करने वा शास्त्रविरुद्द करने पर प्रायश्चित करना । इसी प्रकार के विशेष धर्म कुलधर्म, जातिधर्म आदि है ।

५. वह वृत्ति या आचरण जो लोक समाज की स्थिति के लिये आवश्यक हो । वह आचार जिससे समाज की रक्षा और सुख शांति का वृद्धि हो तथा परलोक में भा उत्तम गति मिले । कल्पाणकारी कर्म । सुकृत । सदाचार । श्रेय । पुण्य । सत्कर्म । विशेष—स्मृतिकारौ ने वणं, आश्रम, गुण और निमित्त धर्म के अतिरिक्त साधारण धर्म भी कहा है जिसका मानना । ब्राह्मण से लेकर चांडाल तक के लिये समान रूप से आलश्यक है । मनु ने वेद, स्मृति, साधुओं के आचार और अपनी आत्मा की तुष्टि को धर्म का साक्षात् लक्षण बताकर साधारण धर् म में दस बातें कहीं हैं—धृति (धैर्य), क्षमा, दम, अस्तेय (चारी न करना), शौच इंद्रिथनिग्रह, धी, विधा, सत्य और अक्रोध । मनुष्य मात्र के लिये जो सामान्य धर्म निरूपित किया गया है । वही समाज को धारण करनेवाला है, उसके बिना समाज की रक्षा नहीं हो सकती । मनु ने कहा है कि रक्षा किया हुआ धर्म रंक्षा करता है । अतः प्रत्येक सभ्य देश के जनसमुदाय के बीच श्रद्बा भक्ति, दया प्रेम, आदि चित्त की उदात्त मनो- वृतिय़ों से संबंध रखनेवाले परोपकार धर्म की स्थापना हुई है, यहाँ तक कि परलोक आदि पर विश्वास न रखनेवाले योरप के आधिभौतिक तत्ववेत्ताओं को भी समाज की रक्षा के निमित्त इस समान्य धर्म का स्वीकारक करना पड़ा है । उन्होंने इस धर्म का लक्षण यह बताया है कि जिस, कर्म से अधिक मनुष्यों की अधिक सुख मिले वह धर्म है । बौद्ध शास्त्रों में इसी धर्म को शील कहा गया है । जैन शास्त्रों ने अहिंसा को परम धर्म माना है । क्रि॰ प्र॰—करना ।—होना । मुहा—धर्म कमाना = धर्म करके उसका फल संचित करना । धर्म की धूम = धर्म का अत्याधिक प्रतार । उ॰—पवित्र वैदिक धर्म की ही धूम थी ।—प्रेमधन॰, भा॰ २, पृ॰ ३७५ । धर्म खाना = धर्म की शपथ खाना । धर्म की दुहाई देना । धर्म बिगाड़ना = (१) धर्म के विरुद्ध आचरण करना । धर्म- भ्रष्ट करना । (२) स्त्री का सतीत्व नष्ट करना । धर्म रखना = धर्म के विरुद्ध आचरण करने से बचना या बचाना । धर्म लगती कहना = धर्म का ध्यान रखकर कहना । ठीक ठीक कहना । सत्य कहना । उचित बात कहना । जैसे,—हम तो धर्म लगती कहैंगे चाहे किसी को भला लगे या बुरा । धर्म से कहना = सत्य सत्य़ कहना । ठीक ठीक कहना । उचित बात कहना ।

६. किसी आचार्य या महात्मा द्बारा प्रवर्तित ईश्वर, परलोक आदि के संबंध में विशेष रूप का विश्वास ओर आराधना की विशेष प्रणाली । उपासनाभेद । मत । संप्रदाय । पंथ । मजहब । जैसे, हिंदू धर्म, ईसाई धर्म, इसलाम धर्म । क्रि॰ प्र॰—छोड़ना ।—बदलना । विशेष—इस अर्थ मे इस शब्द का प्रयोग प्राचीन नहीं है ।

७. परस्पर व्यवहार संबंधी नियम जिसका पालन राजा, आचार्य या मध्यस्थ द्बारा । कराया जाय । नीति । न्याय- व्यवस्था । कायदा । कानून जैसे, हिंदू धर्मशास्त्र । यौ॰—धर्मराज । धर्माधिकारी । धर्माध्यक्ष । विशेष—आचार और व्यवहार दोनों का प्रतिपादन स्मृतियों में हुआ है । आज्ञवल्कप स्मृति में आचाराध्याय और व्यव- हारध्याय अलग अलग है । दायविभाग, सीमाविवाद, ऋणादान, दंडयोग्य अपराध आदि सब विषय अर्थात् दीवानी और फौजदारी के सब मामलें व्यवहार के अंतर्गत हैं । राजसभा में या धर्माध्यक्ष के सामनें इन सब व्यवहारों (मुक- दमों) का निर्णय होता था ।

८. उचित अनुचित का विचार करनेवाली चित्तबृत्ति । न्याय- बुद्बि । विवेक । ईमान । उ॰—जैसा तुम्हारे धर्म में आवे करो, मारो चाहे छोड़ो ।—लक्ष्मण सिंह (शब्द॰) । मुहा॰—धर्म में आना = अंतःकरण में उचित जान पड़ना ।

९. धर्मराज । यमराज ।

१०. धनुष । कमान ।

११. सोमपायी ।

१२. वर्तमान अवसर्पिणी के १५ वें अर्हत् का नाम (जैन) ।

१३. जन्मलग्न से नवें स्थान का नाम जिसके द्वारा यह विचार किया जाता है कि बालक कहाँ तक भाग्यवान् और धार्मिक होगा ।

१४. युधिष्ठिर । धर्मराज (को॰) ।

१५. सत्संग (को॰) ।

१६. प्रकृति । स्वभाव । तरीका । ढंग ।

१७. आचार (को॰) ।

१८. अहिंसा (को॰) ।

१९. एक उपनिषद् (को॰) ।

२०. आत्मा (को॰) ।

२१. निष्पक्ष होने का बाव या स्थिति (को॰) ।