प्रकाशितकोशों से अर्थ

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शब्दसागर

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धँसना ^१ क्रि॰ अ॰ [सं॰ दंशन (= दांत चुभना)]

२. किसी कड़ी वस्तु का किसी नरम वस्तु के भीतर दाब पाकर घुसना । गड़ना । जैसे, पैर में काँटा घँसना, दीवार में कील धँसना, कीचड़ या दलदल में पैर धँसना । संयो॰ क्रि॰—जाना । विशेष—'चुभना' और 'धँसना' में अंतर यह है कि 'चुभना' का प्रयोग विशेषतः जीवधारियों के शरीर में घुसने के अर्थ में होता है । जैसे, पैर में काँटा चुभना । दूसरी बात यह है कि 'चुभना' नुकीली वस्तुओं के लिये आता है, जैसे, काँटा, सूई आदि । मुहा॰—जी या मन में धँसना = (१) चित्त में प्रभाव उत्पन्न करना । मन में निश्चय या विश्वास उत्पन्न करना । दिल में असर करना । जैसे,—उसे लाख समझाओ उसके मन में कोई बात धँसती ही नहीं । (२) हृदय में अंकित होना । अच्छा लगने के कारण ध्यान में बराबर रहना । चित्त से न हटना । ध्यान पर बराबर चढ़ा रहना । उ॰—मन महँ धँसी मनोहर मूरति टरति नहीं वह टारे ।—सूर (शब्द॰) ।

२. किसी ऐसी वस्तु के भीतर जाना जिसमें पहले से अवकाश न रहा हो । अपने लिये जगह करते हुए घुसना । उघर उधर दबाकर जगह खाली करते हुए बढ़ना या पैठना । जैसे, पानी में धँसना, भीड़ में धँसना, दलदल में धँसना । उ॰—(क) जोर जगी जमुना जल धार में धाय धँसी जलकेलि की माती ।—(शब्द॰) । (ख) आयो जौन तेरी धौरी धारा में धँसत जात तिनको न होत सुरपुर तें निपात है ।—पद्माकर (शब्द॰) । संयो॰ क्रि॰—जाना । पड़ना । पु †

३. नीचे की ओर धीरे धीरे जाना । नीचे खसकना । उतरना । उ॰—(क) खरी लसति गोरे गरे धँसति पान की पीक ।—बिहारी (शब्द॰) । (ख) जनु कलिंदनंदिनि मनि इंद्रनील सिखर परसि धँसति लसति हँस श्रेणि संकुलन अघिकौहैं ।—तुलसी (शब्द॰) । (ग) पति पहिचानि धँसी मंदिर तें, सूर, तिया अभिराम । आवहु कंत लखहु हरि को हित पाँव धारिए धाम ।—सूर (शब्द॰) ।

४. तल के किसी अंश का दबाव आदि पाकर नीचे हो जाना जिससे गड्ढ़ा सा पड़ जाय । नीचे की और बैठ जाना । जैसे,—(क) जहाँ गोला गिरा वहाँ जमीन नीचे धँस गई । (ख) बीमारी से उसकी आँखें धँस गई हैं । विशेष—पोली वस्तु के लिये इस अर्थ में 'पचकना' का प्रयोग होता है ।

५. किसी गड़ी या नीवँ पर खड़ी वस्तु का जमीन में और नीचे तक चला जाना जिससे वह ठीक खड़ी न रह सके । बैठ जाना । जैसे,—इस मकान की नीवँ कमजोर हैं, बरसात में यह धँस जायगा ।

धँसना पु ^२ क्रि॰ अ॰ [सं॰ ध्वंसन] ध्वस्त होना । नष्ट होना । मिटना । उ॰—निज आतम अज्ञान ते है प्रतीति जग खेद । घँसै सु ताके बोध ते यह भाखत मुनि वेद ।—विचारसागर (शब्द॰) ।