संज्ञा

  1. कलंक, लांछन

प्रकाशितकोशों से अर्थ

शब्दसागर

दोष ^१ संज्ञा पुं॰ [सं॰]

१. बुरापन । खराबी । अवगुण । ऐब । नुक्स । जैसे, आँख या कान का दोष, लिखने या पढ़ने का दोष, शासन के दोष आदि । मुहा॰—दोष लगाना = किसी के संबंध में यह कहना कि उसमें अमुक दोष है । दोष का आरोप करना । दोष नीकालना = दोष का पता लगाना । अवगुण को प्रसिद्ध या प्रकट करना । यौ॰—दोषकर, दोषकारी = दे॰ 'दोषकृत्' । दोषग्राही । दोषज्ञ । दोषत्रय = कफ, पित्त और वायु । दोषदृष्टि । दोषपत्र । दोषमाक् = दोषी । अपराधी । दोषदर्शी = दोष दिखलानेवाला । ऐब दिखलानेवाला ।

२. लगाया हुआ अपराध । अभियोग । लांछन । कलंक । मुहा॰—दोष देना या लगाना = लांछन या कलंक का आरोप करना । यौ॰—दोषारोपण = दोष देना या लगाना ।

३. अपराध । कसूर । जुर्म ।

४. पाप । पातक ।

५. वैद्यक के अनुसार शरीर में रहनेवाले वात, पित्त और कफ, जिनके कुपित होने से शरीर में विकार अथवा ब्याधि उत्पन्न होती है ।

६. न्याय के अनुसार वह मानसिक भाव जो मिथ्या ज्ञान से उत्पन्न होता है और जिसकी प्रेरणा से मनुष्य भले या बुरे कार्यों में प्रवृत्त होता है ।

७. नव्य न्याय में वह त्रुटि जो तर्क के अक्यवों का प्रयोग करने में होती है । यह तीन प्रकार की होती है—अतिव्याप्ति, अव्याप्ति और असद्राव ।

८. मीमांसा में वह अदृष्टफल जो विधि के न करने या उसके विपरीत आचरण से होता है ।

९. साहित्य में वे बातें जिनसे काव्य के गुण में कमी हो जाती है । विशेष—यह पाँच प्रकार का होता है—पददोष, पदांशदोष, वाक्यदोष, अर्थदोष और रसदोष । इनमें से हर एक के अलग अलग कई गौण भेद हैं ।

१०. भागवत के अनुसार आठ वसुओं में से एक का नाम ।

११. प्रदोष । गोधूलिकाल ।

१२. विकार । खराबी (को॰) ।

१३. अशुद्धि । गलती (को॰) ।

१४. वत्स । बछड़ा (को॰) ।

दोष ^२ संज्ञा पुं॰ [सं॰ द्वेष] द्वेष । विरोध । शत्रुता । उ॰—सो जन जगत जहाज है जाके राग न दोष । तुलसी तृष्णा त्यागि कै गह्येउ शील संतोष ।—तुलसी (शब्द॰) ।