दास

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प्रकाशितकोशों से अर्थ सम्पादन

शब्दसागर सम्पादन

दास ^१ संज्ञा पुं॰ [सं॰] [स्त्री॰ दासी]

१. वह जो अपने को दूसरे की सेवा के लिये समर्पित कर दे । सेवक । चाकर । नौकर । विशेष— मन् ने सात प्रकार के दास लिखे हैं— ध्वजाहृत, अर्थात् युद्ध में /?/ हुआ; भक्त दास, अर्थात् जो भात या भोजन पर रहे; गृहज, अर्थात् जो घर की दासी से उत्पन्न हो; क्रीत, अर्थात् मोल लिया हुआ, दात्रिम, अर्थात् जिसे किसी ने दिया हो; दंडदास, अर्थात् जिसे राजा ने दास होने का दंड दिया हो; और पैतृक, अर्थात् जो बाप दादों से दाय में मिला हो । याज्ञवल्क्य, नारद आदि स्मृतियों में दास पंद्रह प्रकार के गिनाए गए हैं— गृहजात, क्रीत, दाय में मिला हुआ, अन्नाका- लभृत, अर्थात् अकाल या दुर्भिक्ष में पाला हुआ; आहित, अर्थात् जो स्वामी से इकट्ठा धन लेकर उसे सेवा द्वारा पटाता हो; ऋणदास, जो ऋण लेकर दासत्व के बंधन में पड़ा हो; युद्धप्राप्त, बाजी या जुए में जीता हुआ; स्वयं उपगत, अर्थात् जो आपसे आप दास होने के लिये आया हो; प्रव्रज्यावसित, अर्थात् जो संन्यास से पतित हुआ हो; कृत, अर्थात् जिसने कुछ काल तक के लिये आपसे आप सेवा करना स्वीकार किया हो; भक्तदास; बड़वाहृत्, अर्थात् जो किसी बड़वा या दासी से विवाह करने से दास हुआ हो; लब्ध, जो किसी से मिला हो; और आत्मविक्रेता, जिसने अपने को बेच दिया हो । ब्राह्मण के लिये दास होने का निषेध है, ब्राह्मण को छोड़ और तीनों वर्ण के लोग दास हो सकते हैं । यदी कोई ब्राह्मण लोभवश दासत्व स्वीकार करे तो राजा उसको दंड दे (मनु) । क्षत्रिय और वैश्य दासत्व से विमुक्त हो सकते हैं पर शूद्र दासत्व से नहीं छूट सकता । यदि वह एक स्वामी का दासतव् छोडे़गा तो दूसरे स्वामी का दास होगा । दास उसे सब दिन रहना पड़ंगा क्योंकि दासत्व के लिये उसका जन्म ही कहा गया है । दासों के दो प्रकार के कर्म कहै गए हैं, — शुभ (अच्छे) और अशुभ (बुरे) । दरवाजे पर झाडू देना, मल मूत्र उठाना, जूठा धोना आदि बुरे कर्म माने गए हैं ।

२. शूद्र ।

३. धीवर ।

४. एक उपाधि जो शूद्रों के नामों के आवे । लगाई जाती है ।

५. दस्यु ।

६. वृत्रासुर ।

७. ज्ञातात्मा । आत्मज्ञानी ।

८. दानपात्र (को॰) ।

९. कायस्थों की एक उपाधि (बंगाल) ।

दास ^२ संज्ञा पुं॰ [हिं॰] दे॰ 'दासन', 'डामन' । उ॰— भा निर्मल सब धरति अकासू । सेज सँवारि गीन्ह भल दासू ।— जायसी (शब्द॰) ।