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प्रकाशितकोशों से अर्थ सम्पादन

शब्दसागर सम्पादन

त्रिकूट संज्ञा पुं॰ [सं॰]

१. तीन श्रृंगोंवाला पर्वत । वह पर्वत जिसकी तीन चोटियाँ हों ।

२. वह पर्वत जिसपर लंका बसी हुई मानी जाती है । देवी भागवत के अनुसार यह एक पीठस्थान है और यहाँ रूपसुंदरी के रूप में भगवती निवास करती हैं । उ॰—गिरि त्रिकूट एक सिंधु मँझारी । विधि निर्मित दुर्गम अति भारी ।—तुलसी (शब्द॰) ।

३. सेंधा नमक ।

४. एक कल्पित पर्वत जो सुमेरु पर्वत का पुत्र माना जाता है । विशेष—वामन पुराण के अनुसार यह क्षीरोद समुद्र में है । यहाँ देवर्षि रहते हैं और विद्याधर, किन्नर तथा गंधर्व आदि क्रीडा करने आते हैं । इसकी तीन चोटियाँ हैं । एक चोटी सोने की है जहाँ सूर्य आश्रय लेते हैं और दूसरी चोटी चाँदी की जिसपर चंद्रमा आश्रय लेते हैं । तीसरी चोटी बरफ से ढकी रहती है और वैदूर्य, इंद्रनील आदि मणियों की प्रभा से चमकती रहती है । यही उसकी सवसे ऊँची चोटी है । नास्तिकों और पापियों को यह नहीं दिखलाई देता ।