ठौर
प्रकाशितकोशों से अर्थ
सम्पादनशब्दसागर
सम्पादनठौर पु संज्ञा पुं॰ [सं॰ स्थान, प्रा॰ ठान, हिं॰ ठाँव + र (प्रत्य॰)]
१. जगह । स्थान । ठिकाना । यौ॰—ठौर ठिकाना = (१) रहने का स्थान । (२) पता ठिकाना । मुहा॰—ठौर कुठौर = (१) अच्छी जगह, बुरी जगह । बुरे ठिकाने । अनुपयुक्त स्थान पर । जैसे—(क) इस प्रकार ठौर कुठौर की चीज उठा लिया करो । (ख) तुम पत्थर फेंकते हो किसी को ठौर कुठौर लग जाय तो ? (२) बेमौका । बिना अवसर । ठौर न आना = समीप न आना । पास न फटकना । उ॰—हरि को भजै सो हरिपद पावै । जन्म मरन तेहि ठौर न आवै ।—सूर (शब्द॰) । ठौर न रहना = स्थान या जगह न मिलना । निराश्रय होना । उ॰—कबीर ते नर अंध हैं, गुरु को कहते और । हरि रूठे गुरु और हैं, गुरु रूठे नहिं ठोर ।— कबीर सा॰ सं॰, भा॰ १, पृ॰ ४ । ठौर मारना = तुरंत बध कर देना । उ॰—तब मनुष्यन ने वाकों ठौर मारयौ । ता पाछें वाकौ सीस गाम के द्वार पैं बाँध्यो ।—दो सो बावन॰, भा॰ २, पृ॰ ९६ । ठौर रखना = उसी जगह मारकर गिरा देना । मार डालना । ठौर रहना = (१) जहाँ का तहाँ रह जाना । पड़ रहना । (२) मर जाना । किसी के ठौर = किसी के स्थानापन्न । किसी के तुल्य । उ॰—किबले के ठौर बाप बाद— शाह साहजहाँ ताको कैद कियौ मक्के आगि लाई है ।— भूषण (शब्द॰)
२. मौका । घात । अवसर । उ॰—ठोर पाय पवनपुत्र डारि मुद्रिका दई । केशव (शब्द॰) ।