प्रकाशितकोशों से अर्थ

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शब्दसागर

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ठयना क्रि॰ स॰ [सं॰ अनुष्ठान]

१. ठानना । द्दढ़ संकल्प के साथ आरंभ करना । छेड़ना । उ॰—(क) दासी सहस प्रगट तँह भई । इंद्रलोक रचना ऋषि ठई ।—सूर (शव्द॰) । (ख) जब नैननि प्रीति ठई ठग श्याम सों, स्यासी सखी हठि हौ बरजी ।—तुलसी (शब्द॰) ।

२. कर चुकना । पूरी तरह से करना । (इसका प्रयोग संयो॰ क्रि॰ के रूप में हुआ है) । उ॰—देवता निहोरे महामारिन सों कर जोरे भोरानाथ भोरे आपनी सी कहि ठई है ।—तुलसी (शब्द॰) ।

३. मन में ठह— राना । निश्चित करना । उ॰—तुलसिदास कौन आस मिलन की ? कहि गए सो तो एकौ चित न ठई ।—तुलसी (शब्द॰) । (ख) एहि बिधि हित तुम्हार मै ठएऊ ।—मानस, पृ॰ ७१ ।

ठयना ^२ क्रि॰ अ॰

१. ठनना । दृढ़ संकल्प के साथ आरंभ होना ।

२. मन में दृढ़ होना ।

३. प्रयोग में आना । कार्य में प्रयुक्त होना ।

ठयना ^३ क्रि॰ स॰ [सं॰ स्थापन, प्रा॰ ठावन]

१. स्थापित करना । बैठाना । ठहराना ।

२. लगाना । प्रयुक्त करना । नियोजित करना । उ॰—बिधिना अति ही पोच कियो री । ...रोम रोम लोचन इक टक करि युवतिन प्रति काहे न ठयो री ।— सूर (शब्द॰) ।

ठयना ^४ क्रि॰ अ॰

१. ठहरना । स्थित होना । बैठना । जमना । उ॰—राज रूख लखि गुरु भूसुर सुआसनन्हि समय समाज की ठवनि भली ठई है ।—तुलसी (शब्द॰) ।

२. प्रयुक्त होना । लगना । नियोजित होना ।