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प्रकाशितकोशों से अर्थ सम्पादन

शब्दसागर सम्पादन

टेकना ^१ क्रि॰ स॰ [हिं॰ टेक]

१. खडे़ खडे़ या बैठे बैठे श्रम से बचने लिये शरीर के बोझ को किसी वस्तु पर थोडा़ बहुत डालना । सहारे के लिये किसी वस्तु को शरीर के साथ भिडा़ना । सहारा लेना । ढासना लेना । आश्रय बनाना । जैसे, दीवार या खंभा टेककर खडा़ होना । संयो॰ क्रि॰—लेना ।

२. किसी अंग को सहारे आदि के लिये कहीं टिकाना । ठहराना या रखना । मुहा॰—घुटने टेकना = पराजय स्वीकार करना । हार मानना । माथा टेकना = प्रणाम करना । दंडवत् करना ।

३. चलने, चढ़ने, उठने बैठने आदि में शरीर का कुछ भार देने के लिये किसी वस्तु पर हाथ रखना या उसको हाथ से पकड़ना । सहारे के लिये थामना । जैसे, चारपाई टेककर उठना बैठना, लाठी टेककर चलना । उ॰— (क) सूर प्रभु कर सेज टेकत कबहुँ टेकत ढहरि ।—सूर (शब्द॰) । (ख) नाचत गावत गुन की खानि । समित भए टेकत पिय पानि ।—सूर (शब्द॰) ।

४. चलने में गिरने पड़ने से बचने के लिये किसी का हाथ पकड़ना । हाथ का सहारा लेना । उ॰—गृह गृह गृहद्वार फिरयो तुमको प्रभु छाँडे । अंध अंध टेकि चलै क्यों न परै गाढे़ ।—सूर (शब्द॰) । † पु

५. टेक करना । हठ करना । ठानना । उ॰—सोइ गोसाइँ जेइ निधि गति छेंकी । सकइ को टारि टेक जो टेकी ।—तुलसी (शब्द॰) ।

६. किसी को कोई काम करते हुए बीच में रोकना । पकड़ना । उ॰—(क) रोवहि मातु पिता औ भाई । कोउ न टेक जो कंत चलाई ।—जायसी (शब्द॰) । (ख) जनहुँ औटि कै मिलि गए तस दूनौ भए एक । कंचन कसत कसौटी हाथ न कोऊ टेक ।—जायसी (शब्द॰) ।

टेकना ^२ संज्ञा पुं॰ [देश॰] एक प्रकार का जंगली धान । चनाव ।