प्रकाशितकोशों से अर्थ

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शब्दसागर

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जप संज्ञा पुं॰ [सं॰] [वि॰ जपतव्य, जपनीय, जपी, जप्य]

१. किसी मंत्र या वाक्य का बार बार धीरे धीरे पाठ करना ।

२. पूजा या संध्या आदि में मंत्र का संख्यापूर्वक पाठ करना । विशेष—पुराणों में जप तीन प्रकार का माना गया है—मानस, उपांशु और वाचिक । कोई कोई उपांशु और मानस जप के बीच 'जिह्वाजप' नाम का एक चौथा जप भी मानते हैं । ऐसे लोगों का कथन है कि वाचिक जप से दसगुना फल उपांशु में, शतगुना फल जिह्वा जप में और सहस्त्रगुना फल मानस जप में होता है । मन ही मन मंत्र का अर्थ मनन करके उसे धीरे धीरे इस प्रकार उच्चारण करना कि जिह्वा और ओंठ में गति न ही, मानस जप कहलाता है । जिह्वा और ओठ को हिलाकर मंत्रों के अर्थ का विचार करते हुए इस प्रकार उच्चारण करना कि कुछ सुनाई पड़े, उपांशु जप कहलाता है । जिह्वाजप भी उपांशु के ही अंतर्गत माना जाता है, भेद केवल इतना ही है कि जिह्वा जप में जिह्वा हिलती है, पर ओठ में गति नहीं होती और न उच्चारण ही सुनाई पड़ सकता है । वर्णों का स्पष्ट उच्चारण करना वाचिक जप कहलाता है । जप करने में मंत्र की संख्या का ध्यान रखना पड़ता है, इसलिये जप में माला की भी आवश्यकता होती है । यौ॰—जपमाला । जपयज्ञ । जपस्थान ।

३. जापक । जपनेवाला । जैसे, कर्णेंजप ।