चन्दन
प्रकाशितकोशों से अर्थ
सम्पादनशब्दसागर
सम्पादनचंदन संज्ञा पुं॰ [सं॰ चन्दन]
१. एक पेड जिसके हीर की लकडी बहुत सुगंधित होती है और जो दक्षिण भारत के मैसूर, कूर्ग, हैदराबाद, करनाटक, नीलगिरी, पश्चिमी घाट आदि स्थानों में बहुत होता है । उत्तर भारत में भी कहीं कहीं यह पेड लगाया जाता है । चंदन की लकडी औषध तथा इत्र , तेल आदि बनाने के काम में आती है । हिंदू लोग इसे घिसकर इसका तिलक लगाते हैं और देवपूजन आदि में इसका व्यवहार करते हैं । विशेष—चंदन की कई जातियाँ होती हैं जिनमें से मलयागिरि या श्रीखंड(सफेद चंदन) ही असली चंदन समझा जाता है और सबसे सुंगधित होता है । इसका पेड २०, ३० फुट ऊँचा और सदाबहार होता है । पत्तियाँ इसकी डेढ इंच लंबी और बेल की पत्तियों के आकार की होती हैं । फूल पत्तियों से अलग निकली हुई टहनियों में तीन तीन चार चार के गुच्छों में लगते हैं । यह पेड प्राय: सूखे स्थानों में ही होता है । इसके हीर की लकडी कुछ मटमैलापन लिए सफेद होती है जिसमें से बडी सुंदर महक निकलती है । यह महक एक प्रकार के तेल की होती है जो लकडी को अंदर होता है । जड में यह तेल सबसे अधिक होता है, इससे तेल य़ा इत्र खींचने के लिये इसकी जड की बडी माँग रहती है । चदन की लकडी से चौखटे, नक्काशीदार संदूक आदि बहुत से सामान बनते हैं जिनमें सुगंध के कारण घुन नहीं लगता । हिंदू लोग इसकी लकडी को पत्थर पर पानी के साथ घिस— कर तिलक लगाते हैं । इसका बुरादा धूप के समान सुगंध के लिये जलाया जाता है । चीन, बरमा आदि देशों के मंदिरों में चंदन के बुरादे की धूप बहुत जलती है । चंदन का पेड वास्तव में उस जाति के पेडो में है, जो दूसरे पौधों के रस से अपना पोषण करते हैं (जैसे, — बाँदा, कुकुरमुत्ता आदि) । इसी से यह घास, पौधों और छोटी छोटी झाडियों के बीच में अधिक उगता है । कौन कौन पौधे इसके आहार के लिये अधिक उपयुक्त होते हैं, इसका ठीक ठीक पत्ता न चलने से इसे लगाने में कभी कभी उतनी सफलता नहीं होती । यों ही अच्छी उपजाऊ जमीन में लगा देने से पेड बढता तो खूब है, पर उसकी लकडी में उतनी सुगंध नहीं होती । सरकारी जंगल विभाग के एक अनुभवी अफसर की राय है कि चंदन के पेड के नीचे खूब घास पात उगने देना चाहिए, उसे काटना न चाहिए । घास पात के जंगल के बीच में बीज पडने से जो पौधा उगेगा और बढेगा, उसकी लकडी में अच्छी सुगंध होगी । श्रीखंड या असली चंदन के सिवा और बहुत से पेड हैं जिनकी लकडी चंदन कहलाती है । जजीबार (अफ्रीका) से भी एक प्रकार का श्वेत चंदन आता है, जो मलयागिरि के समान व्यवहृत होता है । हमारे यहाँ रंग के अनुसार चंदन के कुछ भेद किए गए हैं । जेसे, — श्वेत चंदन, पीत चंदन, रक्त चंदन इत्यादि । श्वेत चंदन और पीत चंदन एक ही पेड से निकलते हैं । रक्त चंदन का पेड भिन्न होता है । उसकी लकडी कडी होती है और उसमें महक भी वैसा नहीं होती । निघंटु रत्नाकर आदि बैद्यक के ग्रंथों में चंदन के दो भेद किए गए हैं—एक वेट्ट, दुसरा सुक्कडि । मलयागिरि के अंतर्गत कुछ पर्वत हैं जो वेट्ट कहलाते हैं । अत: उन पर्वतों पर होनेबाले चंदन का भी उल्लेख है जिसे कैरातक भी कहते हैं । संभव है, यह किरात देश (आसाम और भूटान) से आता रहा हो । चंदन के विषय में अनेक प्रकार के प्रवाद लोगों में प्रचलित हैं । ऐसा कहा जाता है कि चंदन के पेड में बडे बडे साँप लिपटे रहते हैं । चंदन अपनी सुगंध के लिये बहुत प्राचीन काल से प्रसिद्ध है । अरबवाले पहले भारतवर्ष, लंका आदि से चंदन पश्चिम के देशों में ले जाते थे । भारतवर्ष में यद्यपि दक्षिण ही की ओर चंदन विशेष होता है, तथापी उसके इत्र और तेल के कारखाने कन्नौज ही में हैं । पहले लखनऊ और जौनपुर में भी कारखाने थे । तेल निकालने के लिये चंदन को खूब महीन कूटते हैं । फिर इस बुकनी को दो दिन तक पानी में भिगोकर उसे भभके पर चढाते हैं । भाप होकर जो पानी टपकता है, उसके ऊपर तेल तैरने लगता है । इसी तेल को काछकर रख लेते हैं । एक मन चदन में से २ से ३सेर तक तेल निकलता है । अच्छे चंदन का तेल मलयागिरि कहलाता है और घटिया मेल का कठिया या जहाजी । चंदन औषध के काम में भी बहुत आता है । क्षत या घाव इससे बहुत जल्दी सूखते है । वैद्यक में चंदन शीतल और कडुआ तथा दाह, पित्त, ज्वर, छर्दि, मोह, तृषा आदि को दूर करनेवाला माना जाता है । पर्या॰—श्रीखंड । चंद्रकांत । गोशीर्ष । भोगिवल्लभ । भद्रसार । मलयज । गंधसार । भद्रश्री । एकांग । पटरी । वर्णक । भद्राश्रय । सेव्य । रौहिण । ग्राम्य । सर्पेष्ट । पीतसार । महर्घ । मलयोदभव । गंधराज । सुगंध । सर्पावास । शीतल । शीतगंध । तैलपर्णिक । चंद्रद्युति । सितहिम, इत्यादि ।
२. चंदन की लकडी । चंदन की लकडी या टुकडा । क्रि॰ प्र॰—घिसना ।—रगडना । मुहा॰—चंदन उतारना = पानी के साथ चंदन की लकडी को घिसना जिसमें उसका अंश पानी में घुल जाय ।
३. वह लेप जो पानी के साथ चंदन को घिसने से बने । घिसे हुए चंदन का लेप ।