चकरी
प्रकाशितकोशों से अर्थ
सम्पादनशब्दसागर
सम्पादनचकरी ^१ संज्ञा स्त्री॰ [सं॰ चक्री]
१. चक्की ।
२. चक्की का पाट । उ॰—जँतइत के धन हेरिनि ललइच कोदइत के मन दौरा हो । दुइ चकरी जिन दरन पसारहु तब पैहौ ठिक ठौरा हो ।—कबीर (शब्द॰) ।
३. चकई नाम का लड़कों का खिलौना । उ॰—(क) बोलि लिये सब सखा संग के खेलत स्याम नंद की पौरी । तैसेइ हरि तैसेइ सब बालक कर भौंरा चकरीन की जोरी ।—सूर (शब्द॰) । (ख) चकरी लौं सकरी गलिन छिन आवति छिन जाति । परी प्रेम के फंद में बधू बितावति राति ।—पद्माकर ग्रं॰, पृ॰ १९९ ।
चकरी ^२ वि॰ चक्की के समान इधर उधर घुमनेवाला । भ्रमित । अस्थिर । चंचल । उ॰—हमारे हरि हारिल की लकरी । मन क्रम बचन नंद नंदन उर यह दृढ़ करि पकरी । जागत सोवत स्वप्न दिवस निकि 'कान्ह कान्ह' जक री । सुनत हिये लागत हमैं ऐसी ज्यों निकि करुई कँकरी । सु तौ व्यधि हमकों लै आए देखी सुनी न करी । यह तौ सूर तिन्हैं लै सौंपी जिनके मन चकरी ।—सूर (शब्द॰) ।
चकरी ^३ वि॰ स्त्री॰ [हिं॰ चकरा] चौड़ी । दे॰ 'चकरा' ।