प्रकाशितकोशों से अर्थ

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शब्दसागर

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क्रोध संज्ञा पुं॰ [सं॰]

१. चित्त का वह तीव्र उद्वेग जो किसी अनुचित और हानिकारक कार्य को होते हुए देखकर उत्पन्न होता है और जिसमें उस हानिकारक कार्य करनेवाले से बदला लेने की इच्छा होती है । कोप । रोष । गुस्सा । विशेष—वैशेषिक में क्रोध को द्वेष का एक भेद माना है और उसे द्रोह आदि की अपेक्षा शीघ्र नष्ट हो जानेवाला कहा है । भगवदगीता के अनुसार जो अभिलाषा पुरी नहीं होती है, वही रजोगुण के कारण बदलकर 'क्रोध' बन जाती है । पुराणानुसार यह शरीरस्थ दुष्ट शत्रुओं में से एक है । साहित्य में इसे रौद्र रस का स्थायी भाव माना है । पर्या॰—अमर्ष । प्रतिघ । भीम । क्रुधा । ऱुषा । क्रुत ।

२. साठ संवत्सरों में से उनसठवाँ संवत्सर । इन संवत्सर में आकु— लता और क्रोध की वृद्धि होती है ।—(ज्योतिष) ।

क्रोध ^१ वि॰ [सं॰ कोधिन्] [स्त्री॰ क्रोधिनी] क्रोध करनेवाला । गुस्सावर ।