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कान का डायग्राम

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प्रकाशितकोशों से अर्थ

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शब्दसागर

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कान ^१ संज्ञा पुं॰ [सं॰ कर्ण, प्रा॰ कण्ण] वह इँद्रिय जिससे शब्द का ज्ञान होता है । सुनने की इँद्रिय । श्रवण । श्रुति । श्रोत्र । विशेष—मनुष्यो तथा और दुसरे माता का पीनेवाले जीवो के कान के तीन विभाग होते हैं ।(क) बाहरी, अर्थात् सुप की तरह निकला हुआ भाग और बाहरी छेद । (ख) बीच का भाग जो बाहरी छेद के आगे पडनेवाली झिल्ली या परदे के भीतर होता हैं जिसमें छोटी छोटी बहुत सी हड्डियाँ फैली होती हैं और जिसमे एक नली नाक के छेदों या तालू के ऊपरवाली थैली तक गई होती है । (ग) भीतरी या भुलभूलैया जो श्रवण शक्ती का प्रधान साधक हैं और जिसमे शब्दवाहक तंतुओं के छोर रहते हैं । इनमें एक थैली होती है जो चक्करदार हड्डियों के बीच में जमीं रहती है । इन चक्करदार थैलीयों के भीतर तथा बाहर एक प्रकार का चेप या रस रहता है । शब्दो की जो लहरें मध्यम भाग की परदे की झिल्ली से टकराती है, वे अस्थितंतुओं द्वारा भूलभुलैया में पहुँचती हैं । दुध पीनेवालों से निम्न श्रेणी के रीढवालें जीवों में कान की बनावट कुछ सादी हो जाती है, उसके ऊपर का निकला हुआ भाग नहीं रहता, अस्थितंतु भी कम रहते हैं । बीना रीढवाले कीटों को भी एक प्रकार का कान होता है । मुहा॰—कान उठाना = (१) सुनने के लिये तैयार होना । आहट हेना । अकनना । (२) चौकन्ना होना । सचेत या सजग होना । होशीयार होना । कान उड जाना = (१) लगातार देर तक गंभीर या कडा शब्द सुनते सुनते कान में पीडा और चित्त में घबराहट होना । (२) कान का कट जाना । कान उडा देना = (१) हल्ला गुल्ला करके कान को पीडा पहुँचाना और व्याकुल करना । (२) कान काट लेना । कान उडाना = ध्यान न देना । इस कान से सुनना उस कान से उडा देना । उ॰—अर्थ सुनी सब कान उडाई ।—कबीर सा॰,पृ॰ ५८२ । कान उमेठना = (१) दंड देने के हेतु किसी का कान मरोड देना । जैसे,—इस लडके का कान तो उमेठो । (२) दंड आदि द्वारा गहरी चेतावनी देना । (३) कोई काम न करने की कडी प्रतीज्ञा करना । जैसे,—लो भाई, कान उमेठता हुँ, अब ऐसा कभी न करुँगा । कान उँचे करना = दे॰ 'कान उठाना' । कान एंठेना = दे॰'कान उमेठना' । कान कतरना = दे॰ 'कान काटना' । कान करना = सुनना ।ध्यान देना । उ॰—बालक बचन करिय नहिं काना ।—तुलसी (शब्द॰) । कान काटना = मात करना । बढकर होना । उ॰—बादशाह अकबर उस वक्त कुल तेरह बरस चार महीने का लडका था, लेकीन होशियारी और जवाँमर्दी में बडे ब़डे जवानों का कान काटता था ।—शिवप्रसाद (शब्द॰) । कान का कच्चा = शीघ्रविश्वासी । जो किसी के कहे पर बिना सोचे समझे विश्वास कर ले । जो दुसरो के बहकने में आ जाय । उ॰—क्यों भला हम बात कच्ची सुनें । हैं न बच्चे न कान के कच्चे ।—चुभते॰, पृ॰ १७ । कान का पतला = हर तरह की बात को मान लेनेवाला । झुठी या निराधार बात को मान लेनेवाला । उ॰—जो करे ढाह दे विपत हम पर । पत उतारें न कान के पतले ।—चुभते॰, पृ॰ १७ । कान की ठेंठी या मैल निकलवाना = (१) कान साफ करना । (२) सुनने के योग्य होना । सुनने में सम्यर्थ होना । (अपने) कान खडे करना = (१) (आप) चोकन्ना होना । सचेत होना । जैसे,—बहुत कुछ खो चुके; अब तो कान खडे़ करो । (दूसरे के) कान खडे़ करना = सचेत करना । होशीयार कर देना । चेताना । सजग कर देना । भुल बता देना । कान गरम करना या कर देना = कान उमेठना । कान झन्नाना = अधिक शब्द सुनने से कान का सुन्न हो जाना । जैसे, —इस झाँझ की आवाज से तो कान झन्ना गए । कान पूँछ दबाकर चला जाना = चुपचाप चला जाना । बिना चीं चपड़ किए खिसक जाना । बिना बिरोध किए टल जाना । कान छेदना = बाली पहनने के लिये कान की लौ में छेद करना । (यह बच्चो का एक संस्कार है ।) कान दबाना = विरोध न करना । दबाना । सहमना । जैसे, —उनसे लोग कान दबाते हैं । उ॰—दो चार आदमियों ने मकानों और छतों से ढेले फेंके मगर यह कान दबाए चले ही गए ।—फिसाना॰, भा॰३, पृ॰८६ । (किसी बात पर) कान देना = ध्यान देना । ध्यान से सुनना । जैसे,—हम ऐसी बातों पर कान नहीं देते । उ॰—कहा दीजिए कान प्रान प्यारी की बातन । कहा लीजिए स्वाद अधर के अमृत अघात न ।—ब्रज॰ ग्रं॰, पृ॰ ५९५ । (किसी बात पर) कान धरना = ध्यान से सुनना । (किसी बात से) कान धरना = (किसी बात को) फिर न करने की प्रतिज्ञा करना । बाज आना । काम धरना = दे॰ 'कान उमेठना' । कान न दिया जाना = कर्कश या करुण स्वर सुनने की क्षमता न रहना । न सुना जाना । सुनने में कष्ट होना । जैसे, —(क) ठठेरों के बाजार में कान नहीं दीया जाता । (ख) अपनी माता के लिये बच्चा ऐसा रोता है कि कान नहीं दिया जाता । कान पक जाना = ऊब जाना । अनिच्छा होना । उ॰—सुनते सुनते मेरा कान पक गया ।—किन्नर॰, पृ॰ ७६ । कान पकड़ना = (१) कान मलकर दंड देना । कान उमेठना । (२) अपनी भूल या छोटाई स्वीकार करना । किसी को अपना गुरू मान लेना । (३) किसी बात को न करने की प्रतिज्ञा करना । तोबा करना । जैसे, —आज से कान पकड़ते हैं, ऐसा काम कभी न करेंगे । (किसी बात से) कान पकड़ना= पछतावे के साथ किसी बात के फिर न करने की प्रतिज्ञा करना । जैसे, —अब हम किसी की जमानत करने से कान पकडते हैं । कान पकडी लौंडी = अत्यंत आज्ञाकारिणी दासी । कान पकड़कर उठना बैठना = एक प्रकार का दंड जो प्रायः लडकों को दिया जाता है । कान पकड़कर निकाल देना= अनादार के साथ किसी स्थान से बाहर कर देना । बेइज्जती से हटा देना । कान पड़ना, कान में पड़ना = सुननें में आना । सुनाई पड़ना । कान पर जूँ न रेंगना = कुछ भी परवा न होना । कुछ भी ध्यान न देना । कुछ भी चेत न होना । बेखबर रहना । जैसे, —इतना सब हो गया पर तुम्हारे कान पर जूँ न रेंगी । कान पर हाथ धरकर सुनना = ध्यान से सुनना । उ॰— अगर इजाजत हो तो अर्ज हाल करूँ मगर कान पर हाथ धरकर सुनिए ।—फिसाना॰, भा॰ ३, पृ॰ १२१ । कान पार करना सुनना = ध्यान से एकाग्र होकर सुनना । उ॰—भौंर तू कहीं न मानी बात ।....कानन पारि न सुनत यहि ते नेको बेन हमारो ।—ठेठ॰, पृ॰ १५ । कान पूँछ फटकारना = सजग होना । सावधान होना । चैतन्य होना । तुरंत के आघात से स्वथ या तंद्रा से चैतन्य होना । जैसे—इतना सुनते ही वे कान पूँछ फटकार कर खडे़ हुए । कान फटफटाना = कुत्तों का कान हिलाना जिससे फट फट का शब्द होता है । (यात्रा आदि में यहह अशुभ समझा जाता है ।) कान फुँकवाना = गुरुमंत्र लेना । दीक्षा लेना । कान फुकाना = दे॰ 'कान फुकवाना' । उ॰—जिंदा एक नगर में आया, तासों राजा कान फुकाया ।—कबीर सा॰, पृ॰ ५२६ । कान फूँकना = (१) दीक्षा देना । चेला बनना । गुरुमंत्र देना । (२) दे॰ 'कान भरना' । कान फटना या कान का परदा फटना = कडे़ शब्द सुनते सुनते कान में पीड़ा होना या जी ऊबना । जैसे, —तोशों की आवाज से तो कान फट गए हैं । कान फूटना = दे॰ 'कान फटना या कान का परदा फटना' । उ॰—गरजनि तरजनि अनु अनु भाँती । फुटै कान अरु फाटै छाती ।—नंद॰ ग्रं॰, पृ॰ १९१ । कान फोड़ना = शोर गुल करके कानों को कष्ट पहुँचाना । कान बजना = कान में वायु के कारण साँय साँय शब्द होना । कान बहना = कान से पीब निकलना । कान बींधना = कान छेदना । कान चपड़ियाना या बुचियाना = कानों को पीछे की ओर दबाकर काटने या चोट करने की तैयारी करना । (यह मुद्रा बंदरों ओर घोड़ों में बहुधा देखने में आती है ।) कान भर जाना= सुनते सुनते जी ऊब जाना । जैसे, —उसकी तारीफ सुनते सुनते तो कान भर गए । कान भरना = किसी के विरुद्ध किसी के मन में कोई बात बैठा देना । पहले से किसी के विषय में किसी का ख्याल खराब करना । जैसे,—लोगों ने पहले ही से उनके कान भर दिए थे, इसलिये हमारा सब कहना सुनना व्य़र्थ हुआ । उ॰—क्यों भला आप भर गए साहब, कान ही तो भरे किसी ने थे,—चोखे॰, पृ॰ ५३ । कान मलना = दे॰ 'कान उमेठना' । कान में कौड़ी डालना = दास या गुलाम बानाना । कान में तेल डालना = बहरा बन जाना । बेखबर हो जाना । ध्यान न देना । उ॰— कान में तेल डाल लेने से, कान का खोल डालना अच्छा ।—चोखे॰, पृ॰ २८ । कान में तेल डाल बैठना = बहरा बन जाना । बात सुनकर भी उस और कुछ ध्यान न देना । बेखबर रहना । जैसे,—लोग चारों और रुपया माँग रहे हैं और वह कान में तेल डाले बैठा है । (कोई बात) कान में डाल देना = सुना देना । कान में पारा भरना = कान में पारा भरने का दंड देना । (प्राचीन काल में अपराधियों के कान में सीसा या पारा भरा जाता था । (किसी का) कान लगाना = कान के पीछे घाव ह ो जाना । (किसी का किसी के) कान लगाना = चूपके चूपके बात कहना । गुप्त रीति से मंत्रणा देना । जैसे—जब से बुरे लोग कान लगने लगे, तभी से उनकी यह दशा हुई है । उ॰— आजहि कलि सुनी हम तो, वह कूबरिया अब कान लगी है ।—नट॰, पृ॰ ४१ । कान लगाना = ध्यान देना । कान न हिलाना = बिना विरोध किए कोई बात मान लेना । चूँ न करना । दम न मारना । कान होना=चेत होना । खबर होना । ख्याल होना । जैसे,—जबतक उन्होंने हानि न उठाई तबतक उन्हें कान न हुए । कानाफूंसी करना = (१) चुपके चुपके कान में बात कहना । कानाबाती करना = चुपके चुपके कान में बात कहना । (२) बच्चों को हँसाने का एक ढंग, जिसमें बच्चे के कान में 'कानाबाती कानाबाती कू' कहकर 'कू' शब्द को अधीक जोर से कहते हैं जिससे बच्चा हँस देता है । कानों पर हाथ धरना या रखना = (१) बिलकुल इन्कार करना । किसी बात से अपनी अनभिज्ञता प्रकट करना । किसी बात से अपना लगाव अस्वीकार करना । जैसे, —उनसे इस विषय में कई बार पूछा गया, पर वे कानों पर हाथ रखते हैं । (२) किसी बात के करने से एकबारगी इन्कार करना । जैसे, — हमने उनसे कई बार ऐसा करने को कहा, पर वे कानों पे हाथ रखते हैं । कानों पे उँगली देना=किसी बात से विरक्त या उदासीन होकर उसकी चर्चा बचना । किसी बात को न सुनने का प्रयत्न करना । उ॰— कुल जानि जौ अपनी राखी चहौ दै रही अँगुरी दोउ कानन में ।—प्रेमघन॰, भा॰२, पृ॰ ३९७ । कानों में ठैठियाँ पड़ी होना = कान बंद होना । न सुनना । उ॰— लाडो, ए लाडो, बी मुँह से जरी आवाज दो । सुनती हो और बोलती नहीं । जैसे, कानों में ठेठियाँ पड़ी है ।— सैर॰, पृ॰ ३१ । कानों सुनना न आँखों देखना = पूर्णतः अज्ञात । जिसके विषय में लेशमात्र जानकारी न हो । उ॰— कानों सुनी न आखोँ देखी ।—कबीर सा॰, पृ॰ ५४५ । कानोंकान खबर न होना = जरा भी खबर न होना । कुछ भी सुनने में न आना । जैसे, —देखो, इस काम को एसे ढंग से करना कि किसी को कानोकान खबर न होवे पाये । उ॰— मजूरों को कानोंकान खबर न थी ।—गोदान, पृ॰ २७४ । विशेष—जब 'कान' शब्द से यौगिक शब्द बनाए जाते हैं, तब इसका रूप 'कन' हो जाता है । जैसे, — कनखजूरा, कनखोदनी, कनछेदन, कनमैलिया, कनसलाई ।

२. सूनने की शक्ती । श्रवणशक्ती ।

३. लकड़ी का वह टुकड़ा जो हल के अगले भाग में बाँध दिया जाता है और जिससे जोती हुई कूँड कुछ अधिक चौड़ी होती है । विशेष— गेहूँ या चना बोते समय यह टुकड़ा बाँधा जाता है । इसे कन्ना भी कहते हैं ।

४. सोने का एक गहना जो कान में पहना जाता है ।

५. चारपाई का टेढापन । कनेव ।

६. किसी वस्तु का ऐसा निकला हुआ कोना जो भद्दा जान पडे ।

७. तराजू का पसंगा ।

८. तोप या बंदूक का वह स्थान जहाँ रंजक रखी जाती है और बत्ती दी जाती है । पियाली । रंजकदानी । उ॰—जोगी एक मढ़ी में सोवै । दारू पियै मस्त नहिं होवै । जबै बालका कान में लागै । जोगी छोड़ मढ़ी को भागै ।—(पहेली) ।

कान ^२ संज्ञा स्त्री॰ [हिं॰ कानि]

१. लोकलज्जा ।

२. मर्यादा । इज्जत । दे॰ 'कानि' । उ॰—भीख के दिन दुने दान, कमल जल कुल की कान के ।—बेला, पृ॰ १८ ।

कान ^३ संज्ञा पुं॰ [सं॰ कर्ण] नाव की पतवार जिसका आकार प्रायः कान सा होता है । उ॰— कान समुद्र धँसि लीन्हेंसी भा पाछे सब कोइ ।—जायसी (शब्द॰) ।

कान ^४ पु संज्ञा पुं॰ [सं॰ कृष्ण, प्रा॰ कणह पु कान्ह ] कान्ह । कृष्ण । उ॰— तुम कहा करो कान, काम तें अटकि रहे, तुमको न दोष सो तो आपनोई भाग है ।—मति॰ ग्रं॰, पृ॰ २८० ।

कान ^५ संज्ञा स्त्री॰ [फा॰ तुलनीय सं॰ खनि] खान । खनि ।