कलिकर्ज्य
कलिवर्ज्य कृत्य
१- ज्येष्ठांश, उद्धार या उद्धार- विभाग
ज्येष्ठ पुत्र को जब सम्पूर्ण पैतृक सम्पत्ति या कुछ विशिष्ट अंश दिया जाता है तो उसको ज्येष्ठांश या उद्धार या उद्धार-विभाग को संज्ञा मिलती है. यह कलि में वर्ज्य है।
२- नियोग-
जब पति या पत्नी पुत्रहीन होते हैं तो पति के भाई अर्थात् देवर या किसी सगोत्र आदि द्वारा पत्नी से सन्तान उत्पन्न की जाती है तो यह प्रथा नियोग कहलाती है। अब यह कलिवर्ज्य है ।
३- गौण पुत्रों में औरस एवं दत्तक पुत्र को छोड़कर सभी कलिवर्ज्य हैं ।
४-विधवाविवाह- कुछ वसिष्ठ (१/ ७१-७४) आदि स्मृति- शास्त्रों ने अक्षत कन्या के पुनर्दान और अन्य विधवाओं (जिनका पति से शरीर सम्बन्ध हो चुका था) के विवाह में अन्तर बतलाया है और प्रथम में पुनर्विवाह उचित और दूसरे में अनुचित ठहराया है। किन्तु कलिवर्ज्य वचनों ने दोनों को वर्जित माना है।
५- अन्तर्जातीय विवाह-
यह कलिवर्ज्य है ।
६- सगोत्र कन्या या मातृसपिण्ड कन्या (यथा मामा की पुत्री) से विवाह कलिवर्ज्य है । कलिवर्ज्य होते हुए भी मामा की पुत्री से विवाह बहुत-सी जातियों में प्रचलित रहा है । नागार्जुनकोण्डा (३री शताब्दी ई० के उपरान्त) के अभिलेख में आया है कि शान्तमूल के पुत्र वीरपुरुषदत्त ने अपने मामा की तीन पुत्रियों से विवाह किया।
*७-* आततायी रूप में उपस्थित ब्राह्मण को हत्या कलिवर्ज्य है ।
*८-* पिता और पुत्र के विवाद में साक्ष्य देनेवालों को अर्थदण्ड देना कलिवर्ज्य है।
*(९) आपत्तिकाल में चौरान्न या शूद्रान्न ग्रहण-*
तीन दिनों तक भूखे रहने पर नीच प्रवृत्ति वालों (शूद्रों से भी) से अन्न ग्रहण (या चुराना) ब्राह्मण के लिए कलिवर्ज्य है ।
गौतम (१८।२८-२९); मनु (११-१६) एवं याज्ञ० (३३४३) ने इस विषय में छूट दी थी। प्राचीन काल में भूखे रहने पर ब्राह्मण को छोटी-मोटी चोरी करके खा लेने पर छूट मिली थी, किन्तु कालान्तर में ऐसा करना वर्जित हो गया।
*(१०) समुद्र लंघन*
प्रायश्चित्त कर लेने पर भी समुद्र-यात्रा करनेवाले ब्राह्मण से सम्बन्ध करना कलिवर्ज्य है, प्रायश्चित्त करने पर व्यक्ति पाप-मुक्त तो हो जाता है, किन्तु इस नियम के आधार पर वह लोगों से मिलने-जुलने के लिए अयोग्य ठहरा दिया गया है । 'बौधायनधर्मसूत्र' (१।१।२२) ने समुद्र-संयान (समुद्र-यात्रा) को निन्द्य माना है और उसे महापातकों में सर्वोपरि स्थान दिया है (२।११५१)। मनु ने समुद्र-यात्रा से लौटे ब्राह्मण को श्राद्ध में निमन्त्रित होने के लिए अयोग्य ठहराया है (३/१५८), किन्तु उन्होंने यह नहीं कहा है कि ऐसा ब्राह्मण जातिच्युत हो जाता है या उसके साथ किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं करना चाहिये। उन्होंने उसे केवल श्राद्ध के लिए अयोग्य सिद्ध किया है। औशनस स्मृति ने भी ऐसा ही कहा है । ब्राह्मण लोग समुद्र पार करके स्थाम, कम्बोडिया, जावा, सुमात्रा, बोर्नियो आदि देशों में जाते थे। राजा और व्यापारी-गण भी वहाँ आते-जाते थे। इसमें इसका सन्दर्भ प्राप्त होता है – मिलिन्दपन्हो, राजतरंगिणी (४५०३-५०६), मनु (८।१५७), याज्ञ० (२।३८), नारद (४।१७९) आदि । 'वायपुराण' (४५/७८-८०) ने भारतवर्ष को नो द्वीपों में विभाजित किया है, जिनमें प्रत्येक समुद्र से पृथक् है और वहाँ सरलता से नहीं जाया जा सकता। इन द्वीपों में जम्बूदीप भारत है और अन्य आठ द्वीप ये है-इन्द्र, कसेरु, ताम्रपर्णी, गभस्तिमान, नाग, सौम्य (स्याम ), गन्धर्व, वारुण (बोर्नियो )। स्पष्ट है, पौराणिक भूगोल के अनुसार भारतवर्ष में आधुनिक भारत एवं बृहत्तर भारत सम्मिलित थे। यद्यपि प्राचीन ग्रन्थों ने शूद्रों के लिए समुद्र-यात्रा वर्जित नहीं मानी थी।
*(११) सत्र-* सत्र यज्ञ-सम्बन्धी कालो से सम्बन्धित है। पहले कुछ यज्ञ १२ दिनों, वर्ष भर, १२ वर्षों या उससे भी अधिक अवधियों तक चलते रहते थे। उन्हें केवल ब्राह्मण लोग ही करते थे ( जैमिनी ६।६।१६-२३)। शबर के मत से सत्रों के आरम्भकर्ता को १७ वर्षों से कम का तथा २४ वर्षों से अधिक का नहीं होना चाहिए । सत्र करनेवालों में सभी लोग (चाहे वे यजमान हों या पुरोहित हों) याज्ञिक (यजमान) माने जाते थे। जहाँ सत्रों का वर्णन के सत्रों के कलिवर्ज्य होने का कारण यह है कि उनमें बहुत समय, धन था और लोग परिश्रम-साध्य वैदिक यज्ञों के त्रुटि सम्भवना से उसके स्थान पर सरल कृत्य सम्पादित करने का आदेश दिया गया ।
*(१२) कमण्डलु-धारण*- बौधायन (१।४) ने मिट्टी या काठ के जलपूर्ण पात्रों के विषय में कई सूत्र दिये हैं। प्रत्येक स्नातक को शौच (शुद्धि) के लिए अपने पास जलपूर्ण पात्र रखना पड़ता था। उसे उस पात्र को जल से धोना या हाथ से रगड़ना पड़ता था। ऐसा करना पर्यग्निकरण ( शुद्धि के लिए अग्नि के चारों ओर घुमाने या तपाने) के समान माना जाता था। स्नातक को बिना पात्र या कमण्डलु लिये किसी के घर या ग्राम या यात्रा में जाना वर्जित था। विश्वरूप ने व्याख्या की है कि स्नातक इसे स्वयं नहीं भी धारण कर सकता है, उसके लिए कोई अन्य भी उसे लेकर चल सकता है। वास्तव में उसे ढोना परिश्रम-साध्य एवं अस्वास्थ्यकर था, अतः ऐसा करना क्रमशः अव्यवहार्य होने से यह कलिवर्ज्य किया गया है।
*(१३) महाप्रस्थान-यात्रा-*
'बृहन्नारदीय पुराण' (पूर्वार्ध २४।१६ ) ने भी इसे वजित माना है । मनु (५।३२) एवं याज्ञ० (३।३५) का कहना है कि वानप्रस्थाश्रमी जब किसी असाध्य रोग से पीड़ित हो जाता था और अपने आश्रम के कर्तव्य का पालन नहीं कर सकता था, तो उस दशा में उसे उत्तर-पश्चिम दिशा में महाप्रस्थान कर देने की अनुमति प्राप्त थी। इस प्रस्थान में व्यक्ति तब तक चला जाता था जब तक कि वह थककर गिर न जाय और फिर न उठ सके ।
इसी प्रकार ब्रह्म-हत्या के अपराधों को धनुर्घरों के बाणों से विद्ध होकर मर जाने या अपने को अग्नि में झोंक देने की अनुमति प्राप्त थी । “अपरार्क " ने आदिपुराण को उद्धृत कर कहा है कि यदि कोई व्यक्ति, जो असाध्य रोग से पीड़ित होने के कारण हिमालय की ओर महाप्रस्थान यात्रा करता है या अग्नि-प्रवेश द्वारा आत्महत्या करता है या किसी प्रपात से गिरकर अपने को मार डालता है तो वह पाप नहीं करता, प्रत्युत स्वर्ग को जाता है। 'आदिपुराण या आदित्यपुराण) एक स्थान पर महाप्रस्थान यात्रा की प्रशंसा करता है तो दूसरे स्थान पर उसे कलिवर्ज्य मानता है। कलिवर्ज्यविनिर्णय ने इस विषय में पाण्डवों की महाप्रस्थान यात्रा का उल्लेख किया है।
(१४) गोसव नामक यज्ञ कलिवर्ज्य है।
*(१५)* सौत्रामणी में मद्यपान का प्रयोग कलिवर्ज्य है। सौत्रामणी सोमयज्ञ नहीं है, प्रत्युत यह पशुयज्ञ के साथ एक इष्टि है। यह शब्द सुत्रामन् ( इन्द्र के एक नाम ) से बना है। आजकल इसके स्थान पर दूध दिया जाता है, जिसे 'आपस्तम्बश्रौतसूत्र' ने प्राचीन काल में भी प्रतिपादित किया था। गौतम (८/२०) ने सौत्रामणी को सात हविर्यज्ञों में रखा था। राजसूय के अन्त में या अग्निचयन में या जब तक कोई व्यक्ति अत्यधिक सोमपान करने से वमन करने लगता था या अधिक मलत्याग करने लगता था, तो इसका सम्पादन होता था।
*(१६) अग्निहोत्रहवणी का चाटना तथा चाटने के उपरान्त भी उसका प्रयोग कलिवर्ज्य है।*अग्निहोत्र में स्रुव को दाहिने हाथ में तथा स्रुच( अग्निहोत्रहवणी) को बायें हाथ में रखा जाता था तथा अग्निहोत्रहवणी में स्रुव द्वारा दुग्धपात्र से दूध निकालकर डाला जाता था। अग्निहोत्र होम के उपरान्त अग्निहोत्रहवणी को दो बार चाट लिया जाता था जिससे दुग्ध के अवशिष्ट अंश साफ हो जायें। इस प्रकार चाटने के उपरान्त उसे कुश के अंकुरों से पोंछकर उसका प्रयोग पुनः किया जाता था। सामान्यतः यदि कोई पात्र एक बार चाट लिया जाता है तो किसी धार्मिक कृत्य में उसे फिर से प्रयोग करने के पूर्व पुनः शुद्ध कर लेना आवश्यक है। किन्तु यह नियम अग्निहोत्रहवणी एवं सोम के चमसों (पात्र प्यालों) के विषय में लागू नहीं था। किन्तु अब यह कृत्य कलिवर्ज्य है।*
*(१७) वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश करना अब कलिवर्ज्य है।*
गौतम (३।२५-३४), आप० घ० सू० (२।९।२१।१८ से २।९।२३।२ तक), मनु (६।१-३२), वसिष्ठ (९।१-११) एवं याज्ञः (३।४५-५५)।
(१८) वैदिक अध्ययन एवं व्यक्ति *को जीवन-विधि के आधार पर अशौचावधि में छूट अब कलिवर्ज्य है।* अघ का अर्थ है अशौच, वृत्त ( जीवन-विधि) का सम्बन्ध है पवित्र अग्निहोत्र करने या शास्त्रानुमोदित नियमों के अनुसार जीवन-यापन करने से (मन ४/७-१०)। किसी सपिण्ड को मृत्यु पर ब्राह्मण के लिए अशौचावधि दस दिनों की होती है। (गौतम १४।१; मनु ५।५९ एवं ८३), किन्तु अंगिरा (मिताक्षरा, याज्ञ० ३।२२) ने सभी वर्गों के लिए इस विषय में दस दिनों की अशौचावधि प्रतिपादित की है। दक्ष (६६) एवं पराशर (३५) का कहना है कि वह श्रोत्रिय ब्राह्मण जो वैदिक अग्निहोत्र करता है और वेदज्ञ है, अशौच से एक दिन में मुक्त हो जाता है, अग्निहोत्र न करनेवाला वेदज्ञ ब्राह्मण तीन दिनों में; किन्तु जो दोनों गुणों से हीन है, दस दिनों में मुक्त होता है । अपरार्क ( पृ० १९४) एवं हरदत्त (गौतम १४।१) ने इसी विषय में बहस्पति के वचन दिये है। मिताक्षरा' (याज्ञ० ३।२८-२९) का कथन है कि अशौचावधि का संकोच (कम करना) सब बातों के लिए सिद्ध नहीं है, इसका प्रयोग केवल विशिष्ट बातों तक ही सीमित है। यथा - दानग्रहण, अग्निहोत्र-सम्पादन, वेदाध्ययन तथा वे कृत्य जिनके सम्पादन में अशोचावधि में संकोच न करने के कारण कष्ट या कोई विपत्ति आ सकती है। "
*(१९) ब्राह्मणों के लिए प्रायश्चित्तस्वरूप मृत्यु-दण्ड कलिवर्ज्य है।* मनु (११३८९) ने व्यवस्था दी है कि यदि कोई व्यक्ति जान-बूझकर ब्रह्म हत्या करता है तो उसके लिए कोई प्रायश्चित्त नहीं है। उन्होंने (११।९०) सुरापान के पापमोचन के लिए खौलती सुरा पीकर मर जाने की व्यवस्था दी है, और कहा है (११/१४६) कि यदि कोई जान बूझकर सुरापान करे तो उसके लिए मृत्यु के अतिरिक्त कोई दूसरा प्रायश्चित्त नहीं है। 'विष्णुधर्मसूत्र' (अ० ३४) का कथन है कि माता, पुत्री या पुत्र-वधू के साथ व्यभिचार अतिपातक (महापातक) है, ऐसे पापियों के लिए अग्निप्रवेश से बड़ा कोई अन्य प्रायश्चित्त नहीं है । कुछ स्मतियों ने ऐसे महान अपराधों के लिए प्रपात से गिरकर मरने या अग्निप्रवेश के अतिरिक्त अन्य किसी प्रायश्चित्त की व्यवस्था नहीं दी है। किन्तु आगे चलकर ब्राह्मण का शरीर क्रमशः अधिक पवित्र माना जाने लगा, अतः ब्राह्मण पापी के लिए मृत्यु का दण्ड प्रायश्चित्त रूप में वर्जनीय समझा गया, चाहे उसका पाप कितना भी गम्भीर क्यों न हो। किन्तु यह छट क्षत्रियों आदि के लिए नहीं थी।
*(२०) पतित को संगति (सहाचरण) से प्राप्त अपवित्रता या पाप कलिवर्ज्य है।*
मनु ११।१८० शान्ति १६५।३७ , बौधायन ध० सू० १।८८) तथा 'विष्णुधर्मसूत्र' (३५।२-५) ने कहा है कि वह व्यक्ति पतित हो जाता है जो किसी महापातकी के संसर्ग में एक वर्ष तक रहता है, उसके साथ एक ही आसन या वाहन पर बैठता है या उसके साथ बैठकर एक ही पंक्ति में खाता है। किन्तु वह व्यक्ति उसी क्षण पतित हो जाता है जो किसी पापी का पुरोहित बनता है या उसे गायत्री या वेद पढ़ाने के लिए उसका उपनयन-संस्कार करता है या उसके साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करता
है ।
पराशर (१/२५-२६) का कहना है कि *कृतयुग में पतित से बोलने, त्रेता में उसको देखने, द्वापर में पतित के घर में बना भोजन खाने से व्यक्ति पतित हो जाता है, किन्तु कलियुग में अपराध-कर्म करने से व्यक्ति पतित होता है। कृतयुग में वह जनपद, जहां पतित निवास करता है, छोड़ देना पड़ता है और त्रेता में पतित के ग्राम को, द्वापर में उसके केवल कुछ को एवं कलि में केवल पतित को छोड़ देना पड़ता है।* पराशर (१२।७९) ने निस्सन्देह यह कहा
कि 'बैठने या साथ सोने या एक ही वाहन या आसन का प्रयोग करने, उससे बोलने या एक ही पंक्ति में पतित के साथ खाने से पाप उसी प्रकार अपने में आ जाते हैं जैसे जल में तेल की एक बूंद फैल जाती है। किन्तु इसका तात्पर्य केवल इतना ही है कि पतित का संसर्ग बुरा है, इससे यह न समझना चाहिये कि पतित के संसर्ग से कोई व्यक्ति उसी समय अपवित्र अथवा पापी हो जाता है । 'मिताक्षरा (याज्ञ० ३।२६१) ने देवल एवं वृद्ध-बहस्पति को उद्धृत कर संसर्ग की उत्पत्ति निम्न नौ प्रकारों में बाँटी है, यथा-संलाप से, स्पर्श से, निःश्वास से (एक ही कक्ष में रहने से), सहयान से, सहआसन से, सहाशन (एक पंक्ति में साथ बैठकर खाने) से, याजन (पुरोहिती) से या वेदाध्ययन से या वैवाहिक सम्बन्ध स्थापन से -
*संवत्सरेण पतति पतितेन सहाचरन् ।* *याजनाध्यापनाद्यौनान्न तु यानासनाशनात् ॥* मनु (११।१८०); बौ० ध० सू० (२।१। ८८) । *त्यजेद् देशं कृतयुगे त्रेताया ग्राममुत्सृजेत् ।*
*द्वापरे कुलमेकं तु कर्तारं च कलौ युगे ॥*
*कृते सम्भाषणात्पापं त्रेतायां चैव दर्शनात् ।*
*द्वापरे चान्नमादाय कलौ पतित कर्मणा ॥ पराशर (१।२५-२६) ।*
*आसनाच्छयनाद्यानात्सम्भाषात् सहभोजनात् ।*
*संक्रामन्ति हि पापानि तैलबिन्दुरिवाम्भसि ॥* पराशर (१२।७९)।
*संलापस्पर्शनिःश्वाससहयानासनाशनात् ।*
*याजनाध्यापनाद्यौनात्पापं संक्रमते नृणाम् ॥ देवल (मिता०, याज्ञ०, ३।२६१; अपरार्क पृ० १०८७)।*
पराशर ने कलि में कई प्रकार के संसर्गों में पातित्य नहीं माना है, अतः उन्होंने संसर्ग के लिए कोई प्रायश्चित्त निर्धारित नहीं किया । यही बात निर्णयसिन्धु एवं भट्टोजि दीक्षित ने भी कही है (उद्वाहतत्त्व) ।
अधिकांश में सभी निबन्ध इस विषय में एकमत हैं कि मनु एवं बौधायन द्वारा प्रतिपादित संसर्ग-सम्बन्धी कठिन नियम कालान्तर में संशोधित हो गये, क्योंकि कलियुग में पापी से बातचीत करना या उसे देखना पाप-कर्म नहीं समझा गया है।
(२१) चोरी के अतिरिक्त अन्य महापातकों के लिए गुप्त प्रायश्चित्त कलिवर्ज्य है। हारीत ने उस ब्राह्मण के लिए गुप्त प्रायश्चित्त की व्यवस्था की है जिसने धर्मशास्त्र का पंडित होते हुए भी कोई ऐसा पाप किया है जिसे कोई अन्य नहीं जानता। गौतम (अ० २४) ने ब्रह्महत्या, सुरापान, व्यभिचार और सोने की चोरी जैसे महापातकों के लिए गुप्त (छिपे तौर से किये जानेवाले, अर्थात् जिन्हें कोई अन्य न जाने) प्रायश्चित्तों की व्यवस्था की है। वसिष्ठ (अ० २५) ने भी इसका समर्थन किया है और कहा है (२५।२) कि केवल वे ही लोग गुप्त प्रायश्चित्तों के अधिकारी हैं जो वैदिक अग्निहोत्र करते हैं, अनुशासित और वृद्ध या विद्वान् (श्रुति-धर्म, स्मृति-धर्म आदि में विज्ञ) है। विष्णु ध० स० (५५) ने गुप्त प्रायश्चित्तों का विवेचन किया है ।
पराशर (९।६१) ने सामान्य नियम दिया है कि व्यक्ति को अपने अपराध की घोषणा कर देनी चाहिये। कलिवर्ज्य-सम्बन्धी उक्तियों में ऐसा आया है कि महापातकों में से केवल चोरी के लिए गुप्त प्रायश्चित्त करना चाहिये, यद्यपि प्रारंभिक युगों में अन्य महापातकों के लिए भी ऐसी व्यवस्था थी।
"निर्णयसिन्धु' के मतानुसार गुप्त प्रायश्चित्त की अनुमति केवल ब्राह्मणों को ही मिली है। 'धर्मसिन्धु' का कथन है कि कलियुग में ब्रह्महत्या एवं अन्य महापातकों के कारण प्रायश्चित्त करने से व्यक्ति नरक में गिरने से बच नहीं सकता, किन्तु सामाजिक सम्बन्धों के लिए वह योग्य सिद्ध हो जाता है। परन्तु सोने की चोरी जैसे महापातक का प्रायश्चित्त करने से व्यक्ति नरक में गिरने से भी बच जाता है और सामाजिक सम्बन्धों के योग्य भी हो जाता है। कलिवर्ज्यविनिर्णय के मतानुसार कलियुग में सभी गुप्त प्रायश्चित्त निषिद्ध अथवा वर्जित हैं।
(२२) वैदिक मन्त्रों के साथ वर (दूल्हे), अतिथि एवं पितरों के सम्मान में पशूपाकरण कलिवर्ज्य है।
(२३) असवर्ण स्त्रियों के साथ व्यभिचार करने के उपरान्त प्रायश्चित्त करने पर भी जाति संसर्ग कलिवर्ज्य है ।
गौतम (२३।१४-१५) एवं वसिष्ठ (२१११-३) ने नीच जाति के पुरुष को जब वह किसी उच्च जाति की नारी से व्यभिचार करता है, कई प्रकार से मार डालने की व्यवस्था दी है।
यदि कोई ब्राह्मण किसी चांडाल या श्वपाक नारी से सम्भोग करे तो उसे पराशर (१०१५-७) के मत से तीन दिनों का अनशन, शिखा के साथ शिर-मुण्डन, तीन प्राजापत्य तथा ब्रह्मकूर्च करने पड़ते हैं, ब्राह्मण भोजन कराना पड़ता व्रत है, लगातार गायत्री जप करना पड़ता है, दो गौ दान में देनी पड़ती हैं और तब कहीं वह शुद्ध हो पाता है। किन्तु इसी दुष्कर्म के लिए शूद्र को एक प्राजापत्य एवं दो गायों का दान करना पड़ता है।
यदि कोई नीच जाति का व्यक्ति उच्च जाति की नारी से सम्भोग करे (यथा शूद्र ब्राह्मण नारी से) तो संवर्त (श्लोक १६६-१६७) ने एक महीने तक केवल गोमूत्र एवं यावक (जो की लप्सी) पर रहने के प्रायश्चित्त की व्यवस्था दी है।
यदि ब्राह्मण किसी शद्र या चाण्डाल नारी से व्यभिचार करे तो संवर्त (१६९- १७०) के मत से उसे चान्द्रायण-व्रत करना पड़ता है, किन्तु पराशर (१०।१७-२०) ने इससे अधिक कठिन प्रायश्चित्त की व्यवस्था दी है।
किन्तु कलिवर्ज्य की व्यवस्था ऐसी है कि प्रायश्चित्त के उपरान्त भी असवर्ण नारियों के साथ व्यभिचार के अपराधी व्यक्ति अपनी जाति के लोगों के साथ सम्बन्ध नहीं स्थापित कर सकते, अर्थात् वे जातिच्युत हो जाते हैं । और 'धर्मसिन्धु' जहाँ यही बात शूद्रों के लिए कही गयी है। यह कलि-वर्ज्य निस्सन्देह नैतिकता की कठोरता के लिए व्यवस्थापित है. किन्त इससे जाति-गण विशेषकी रक्षा भी हो जाती है।
(२४) किसी नीच जाति के व्यक्ति से सम्भोग करने पर माता (या उसके जैसी सम्मान्य स्त्री) का परित्याग कलिवर्ज्य है। गौतम (२३।१४) एवं मनु (८।३७१) के मत से किसी नीच जाति के पुरुष से सम्भोग करने वाली स्त्री को राजा द्वारा कुत्तों से नोचवा डाला जाना चाहिये। किन्तु अन्य स्मृतियाँ (स्वयं मनु ११११७७) इतनी कठोर नहीं हैं, प्रत्युत वे व्यभिचारियों से सम्बन्धित व्यवहार (कानून) के विषय में अधिक उदार हैं । मनु (९।५९) एवं याज्ञ० (३२२-५) ने पुरुष के व्यभिचार (पारदार्य) को उपपातक कहा है और सभी उपपातकों के लिए चान्द्रायण व्रत प्रायश्चित्त की व्यवस्था दी है। (मनु ११।११७ एवं याज्ञ० ३।२६५) ।
वशिष्ठ (२१।१२) के मत से तीन उच्च वर्णों की नारियां यदि किसी शूद्र से व्यभिचार करायें और उन्हें कोई संतानोत्पत्ति न हुई हो तो उन्हें प्रायश्चित्त से शुद्ध किया जा सकता है, अन्यथा नहीं। याज्ञ० (१/७२) ने कहा है कि वह नारी व्यभिचार के अपराध से बरी हो जाती है जिसे व्यभिचार के उपरान्त मासिक धर्म हो जाय, किन्तु यदि व्यभिचार से गर्भाधान हो जाय तो वह त्याज्य है ।
'मिताक्षरा (याज्ञ० १/७२) ने कहा है कि याज्ञ० और वसिष्ठ के मत को एक ही अर्थ में लेना चाहिये और परित्याग का तात्पर्य घर से निकाल देना नहीं है, प्रत्युत उसे धार्मिक कृत्यों तथा उसके साथ सम्भोग से उसे वंचित कर देना मात्र है ।
वसिष्ठ (२१/१०) ने चार प्रकार की स्त्रियों को त्याज्य माना है-पति के शिष्य से या पति के गुरु से सम्भोग करनेवाली तथा पतिहन्ता या नीच जाति के पुरुष से व्यभिचार करनेवाली नारी। याज्ञ० (३।२९६-२९७) ने कहा है कि पतित नारियों के लिए नियम पुरुषों के समान है, किन्तु उन्हें भोजन, वस्त्र एवं रक्षण मिलना चाहिये और नीच जाति के पुरुष से सम्बन्ध करने पर उन्हें जो पाप लगता है, वह स्त्रियों के तीन महापातकों में परिगणित होता है। "मिताक्षरा' (याज्ञ. ३/२९७) में कलिवर्ज्य सन्दर्भ में आया है कि वह स्त्री, जो अपने सम्बन्ध (माता, बड़ी बहिन आदि) के कारण व्यक्ति से सम्मान पाने का अधिकार रखती है, वह द्वारा न तो त्याज्य है और न सड़क पर छोड़ दिये जाने के योग्य है, भले ही वह किसी नीच जाति के व्यक्ति के साथ व्यभिचार करने की अपराधिनी हो। स्पष्ट है, यह कलिवर्ज्य वचन स्त्रियों के प्रति प्राचीन वचनों की अपेक्षा अधिक उदार है।
आप० धर्मसू० (१।१०।२८९) ने कहा है कि पुत्र को अपनी माता की सेवा करनी चाहिये और उसकी आज्ञाओं का पालन करना चाहिये, चाहे वह पतित ही क्यों न हो । अत्रि० (१९५-१९६) एवं देवल (५०-५१) का कथन है-"यदि कोई स्त्री असवर्ण पुरुष के सम्भोग से गर्भ धारण कर ले तो वह सन्तानोत्पत्ति तक अशुद्ध है। किन्तु जब वह गर्भ से मुक्त हो जाती है या उसका मासिक धर्म आरम्भ हो जाता है, तब वह सोने के समान पवित्र हो जाती है।" अत्रि (१९७-१९८) ने आगे कहा है कि यदि स्त्री अपनी इच्छा से किसी अन्य के साथ सम्भोग करे या वह वंचित होकर ऐसा करे या उसकी इच्छा के विरुद्ध कोई वैसा करे या छिपकर वैसा करे तो वह त्याज्य नहीं होती, मासिक धर्म तक उसे देख लेना चाहिये और वह पुनः रजस्वला होने पर पवित्र हो जाती है । अत्रि एवं देवल की उदारता कलिवर्ज्य वचन से और चमक उठती है, क्योंकि वह व्यभिचारिणी माँ को त्याज्य नहीं कहता, पर नीच जाति से सम्भोग करनेवाली अन्य स्त्रियों के त्याग की अनुमति देता है।
देवल ने म्लेच्छों द्वारा बलपूर्वक संभुक्त एवं गर्भवती बनाई गयी नारियों को संतापन नामक प्रयश्चित्त द्वारा पवित्र बना लेने की व्यवस्था दी है।
*(२५) दूसरे के लिए अपने जीवन का परित्याग कलिवर्ज्य है ।* विष्णुधर्म सूत्र (३।४५) का कथन है कि जो लोग गौ, ब्राह्मण, राजा, मित्र, अपने धन, अपनी स्त्री की रक्षा करने में प्राण गँवा देते हैं वे स्वर्ग प्राप्त करते हैं।
उन्होंने आगे (१६।१८) यहाँ तक कहा है कि अस्पृश्य लोग (जो चारों वर्गों की सीमा के बाहर हैं) भी ब्राह्मण, गायों, स्त्रियों एवं बच्चों के रक्षार्थ प्राण गंवाने पर स्वर्ग प्राप्त करते हैं। 'आदित्यपुराण' (राजधर्मकाण्ड, में भी यही श्लोक है । यह कलिवर्ज्य मत आत्मत्याग की वर्जना इसलिए करता है कि इससे केवल स्वर्ग की प्राप्ति होती है । यह कलिवर्ज्य केवल द्विजों के लिए है, शूद्रों के लिए नहीं (कलिवर्ज्यविनिर्णय १।२०)
*(२६) उच्छिष्ट (खाने से बचे हुए जूठ भोज्य पदार्थ) का दान कलिवर्ज्य है।* मधुपर्क प्राशन में सम्मानित अतिथि मधु, दूध एवं दही का कुछ भाग स्वयं ग्रहण करता था और शेष किसी ब्राह्मण (या पुत्र या छोटे भाई) को दे देता था। अब यह कलिवर्ज्य है ।
आप० ध० सू० (१।१।४।१-६) ने कहा है कि शिष्य गुरु का उच्छिष्ट प्रसाद रूप में पा सकता है, किन्तु गुरु को चाहिए कि वह वैदिक ब्रह्मचारियों के लिए वर्जित मधु या अन्य प्रकार का भोज्य पदार्थ शिष्य को न दे। याज्ञवल्क्य(१/२१३) का कथन है कि यदि कोई सुपात्र व्यक्ति दान ग्रहण कर उसे अपने पास न रखकर किसी और को दे देता है, तो वह उन उच्च लोकों की प्राप्ति करता है जो उदार दानियों को प्राप्त होते हैं।
*(२७) किसी विशिष्ट देवमूर्ति को (जीवन भर) विधिवत् पूजा करने का प्रण करना कलिवर्ज्य है।* इस प्रकार के वर्जन का कारण समझना कठिन है। इस विषय में भट्टोजि दीक्षित, कलिवर्ज्यविनिर्णय, समयमयूख एवं अन्य लोगों द्वारा उपस्थापित व्याख्याएँ संतोषप्रद नहीं हैं। निर्णयसिन्धु की व्याख्या अपेक्षाकृत अच्छी है, क्योंकि इसने इस वर्ज्य को पारिश्रमिक पर की जाने वाली किसी विशिष्ट प्रतिमा-पूजा तक सीमित रखा है।
'अपरार्क' स्मृति वचन उद्धृत कर *देवलक* की परिभाषा दी है और कहा है कि देवलक वह ब्राह्मण है जो किसी प्रतिमा का पूजन पारिश्रमिक के आधार पर तीन वर्षों तक करता है, जिसके लिए वह श्राद्धों के पौरोहित्य के लिए अयोग्य हो जाता है। स्पष्ट है, इस कथन के अनुसार देवलक ब्राह्मण वित्तार्थी है । मनु (३।१५२) ने देवलक को श्राद्धों तथा देवताओं के सम्मान में किये गये कृत्यों में निमन्त्रित किये जाने के लिये अयोग्य घोषित किया है । कुल्लूक ने देवल को उद्धृत कर इस विषय में कहा है कि जो व्यक्ति किसी देव स्थान के कोष पर निर्भर रहता है, उसे देवलक कहा जाता है। वृद्ध हारीत (८/७७-८०) के मत से केवल शिव के वित्तार्थी पूजक देवलक कहे जाते हैं।
*(२८) अस्थिसंचयन के उपरान्त अशौचवाले व्यक्तियों को छूना कलिवर्ज्य है।* शव-दाह के उपरान्त अस्थिसंचयन के दिन के विषय में धर्मशास्त्रकारों में मतभेद है । इसी कारण 'मिताक्षरा' ने अपने-अपने गृह्यसूत्रों के अनुसरण की बात कही है। 'मिताक्षरा' (याज्ञ० ३.१७) ने कहा है कि संवर्त (३८) के मत से अस्थियाँ पहले, तीसरे, सातवें या नवें दिन संचित को जानी चाहिये; विष्णु ध० सू० (१९।१०-११) के मत से चौथे दिन अस्थियाँ संगृहीत कर गंगा में बहा दी जानी चाहिये और कुछ लोगों के मत से उनका संग्रह दूसरे दिन होना चाहिए । “मिताक्षरा' ने पुनः (याज्ञ० ३।१८)
देवल का इसी विषय में उद्धरण देकर कहा है कि अशुद्धि की अवधि के तिहाई भाग की समाप्ति के उपरान्त व्यक्ति स्पर्श के योग्य हो जाते हैं और इस प्रकार चारों वर्गों के सदस्य क्रम से ३, ४, ५ एवं १० दिनों के उपरान्त स्पर्श के योग्य हो जाते हैं। और उपस्थित कलिवर्ज्य वचन ने यह सब वर्जित माना है और अशुद्धि के नियमों के विषय में कठिन नियम दिये हैं।
*(२९) यज्ञ में बलि होनेवाले पशु का ब्राह्मण द्वारा हनन कलिवर्ज्य है।* श्रौत यज्ञ में पशु की हत्या गला घोट कर को जाती थी। जो व्यक्ति श्वासावरोध कर अथवा गला घोट कर पशु-हनन करता था, उसे शामित्र कहा जाता था। कौन शामित्र हो, इस विषय में कई मत है ।
जैमिनि (३।७।२८-२९) ने स्वयं अध्वर्यु को शामित्र कहा है। किन्तु सामान्य मत यह है कि वह ऋत्विजों के अतिरिक्त कोई अन्य व्यक्ति होता था। आश्वलायन श्रौतसूत्र (१२।९।१२-१३) ने कहा है कि वह ब्राह्मण या अब्राह्मण हो सकता है। पशुयज्ञ कलियुग में निन्द्य या वर्जित मान लिए गये हैं, अतः ब्राह्मण का शामित्र होना भी वर्जित है।
*(३०) ब्राह्मण द्वारा सोमविक्रय कलिवर्ज्य है।* केवल ब्राह्मण ही सोमरस-पान कर सकते थे। सोम लता क्रय की जाती थी, जिसके विषय में प्रतीकात्मक मोल-तोल होता था । कात्या० श्रौ ० सू० (७।६।२-४) एवं आप० श्रौ० सू० (१०। २०।१२) के मत से प्राचीन काल में सोम का विक्रेता कुत्स गोत्र का कोई ब्राह्मण या कोई शूद्र होता होगा। मनु (११।६० एवं नारद (दत्ताप्रदानिक, ७) ने सोम-विक्रेता ब्राह्मण को श्राद्ध में निमंत्रित किए जाने के अयोग्य ठहराया है और उसके यहाँ भोजन करना वर्जित माना है।
मनु (१०८८) ने ब्राह्मण को जल, हथियार, विष, सोम आदि विक्रय करने से मना किया है ।
*(३१) अपने दास, चरवाहे (गोरक्षक), वंशानुगत मित्र एवं साझेदार के घर पर गृहस्थ ब्राह्मण द्वारा भोजन करना कलिवर्ज्य है ।* गौतम (१७।६), मनु (४।२५३ याज्ञ० (१/१६६) का कहना है कि ब्राह्मण इन लोगों का तथा अपने नापित (नाई) का भोजन कर सकता है।
हरदत्त (गौतम १७।६) एवं 'अपरार्क' (पु० २४४) का कथन है कि ब्राह्मण अत्यन्त विपत्तिग्रस्त परिस्थितियों में इन शूद्रों के यहाँ भोजन कर सकता है।
*(३२) अति दूरवर्ती तीर्थों को यात्रा कलिवर्ज्य है।* ब्राह्मण को वैदिक एवं गृह्य अग्नियाँ स्थापित करनी पड़ती थी। यदि वह दूर की यात्रा करेगा तो इसमें बाधा उत्पन्न होगी। आप० श्रौ० सू० (४।१६।१८) ने व्यवस्था दी है कि लम्बी यात्रा में अग्निहोत्री को अपने घर की अग्निवेदिका की दिशा में मुह कर मानसिक रूप से अग्निहोम एवं दर्श- पूर्णमास की सारी विधि करनी पड़ती है । देखिए इस विषय में गोभिलस्मृति (२/१५७) भी। स्मृतिकौस्तुभ का कहना है कि वह कलिवर्ज्य समुद्र पार के या भारतवर्ष की सीमाओं के तीर्थस्थानों के विषय में है। आश्चर्य है कि यह कलि वर्ज्य ब्राह्मण को दूरस्थ तीर्थ की यात्रा करने से मना तो करता है किन्तु उसे यज्ञों के सम्पादन द्वारा धन कमाने के लिए यात्रा करने से नहीं रोकता।
*(३३) गुरु की पत्नी के प्रति शिष्य को गुरुवत् वृत्तिशीलता कलिवर्ज्य है।* आप० ध० सू० (१२।७।२७), गौतम (२।३१-३४), मनु (२।२१०) एवं विष्णु (३३।१-२) ने कहा है कि शिष्य को गुरु की पत्नी या पत्नियों के प्रति वही सम्मान प्रदर्शित करना चाहिए जिसे वह गुरु के प्रति प्रदर्शित करता है (केवल प्रणाम करते समय चरण छूना एवं उच्छिष्ट भोजन करना मना है)।
शिष्य बहुधा युवावस्था के होते थे और गुरुपत्नी युवा हो सकती थी। अतः मनु (२/२१२, २१६ एवं २१७ विष्णु ३२।१३-१५) का कहना है कि बीस वर्ष के विद्यार्थी को गुरुपत्नी का सम्मान पैर छूकर नहीं करना चाहिए, प्रत्युत वह गुरुपत्नी के समक्ष पृथ्वी पर लेटकर सम्मान प्रकट कर सकता है, किन्तु यात्रा से लौटने पर केवल एक बार पैरों को छूकर सम्मान प्रकट कर सकता है। अतः स्पष्ट है कि यह कलिवर्ज्य मनु एवं विष्णु के नियमों का पालन करता है । 'स्मृतिकौस्तुभ' एवं 'धर्मसिन्धु' का कहना है कि इस कलिवर्ज्य से याज्ञ० (१/४९) का वह नियम कलियुग में कट जाता है जिसके अनुसार नैष्ठिक ब्रह्मचारी मृत्युपर्यंत अपने गुरु या गुरुपुत्रों या (इन दोनों के अभाव में) गुरुपत्नी के यहाँ रह सकता है ।
*(३४) आपत्तिकाल में ब्राह्मण द्वारा जीविका-साधन के लिए अन्य विधियों का अनुसरण कलिवर्ज्य है।* ब्राह्मण को जीविका (वृत्ति) के विशिष्ट साधन ये है-दानग्रहण, वेदाध्ययन एवं यज्ञों में पुरोहिती करना (पौरोहित्य) । (गौतम (१००२), आप० (२।५।१०।५), मनु (१०७६।१।८८), वसिष्ठ (२।१४) एवं याज्ञ० (१।११८)।)
प्राचीन काल से ही यह प्रतिपादित था कि यदि ब्राह्मण उपयुक्त साधनों से जीविका न चला सके तो आपत्तिकाल में क्षत्रिय एव वैश्य की वृत्तियाँ धारण कर सकता है (गौतम ७६-७, बौघा० २।२७७-८१, वसिष्ठ २।२२, मनु १०८१-८२ एवं मा० ३३५)। यह कलिवर्ज्य केवल पुस्तकों के पृष्ठों तक सीमित गया है। ब्राह्मणों ने सभी प्रकार की वृत्तियाँ अपनायी है और सम्प्रति यह नियम सम्मानित नहीं हो सका है।
*(३५) अग्रिम दिन के लिए सम्पत्ति (या अन्न) का संग्रह न करना कलिवर्ज्य है ।* मनु (४७) एवं याज्ञ. (१।१२८) ने ब्राह्मणों को चार भागों में बाँटा है-
(१) वे जो एक कुसूल भर अन्न एकत्र रखते हैं;
(२) जो एक कुम्भी भर अन्न एकत्र रखते है,
(३) जो केवल तीन दिनों की आवश्यकता की पूर्ति के लिए अन्न संग्रह करते हैं
(४) वे जो आनेवाले कल के लिए भी अन्न संग्रह नहीं करते।
स्मृतियों ने इनमें से प्रत्येक पूर्ववर्ती से उत्तरवर्ती को अधिक गुणशील माना है। कुसूल-धान्य के अर्थ के विषय में मतैक्य नहीं है, कोई इसे तीन वर्षों के लिए और कोई इसे केवल १२ दिनों के अन्न-संग्रह के अर्थ में लेते हैं, यही बात कुम्भीधान्य के विषय में भी है, किसी ने इसे साल भर के और किसी ने केवल ६ दिन के अन्नसंग्रह के अर्थ में लिया है। 'मिताक्षरा' (याज्ञ०१।१२८) का कथन है कि तीन दिनों या एक दिन के लिए भी अन्न-संग्रह न करना सभी ब्राह्मणों के लिए नहीं है, प्रत्युत यह उनके लिए है जो *यायावर* कहे जाते हैं । इस कलिवर्ज्य का तात्पर्य यह है कि कलियुग में अति दरिद्रता एवं संग्रहाभाव का आदर्श ब्राह्मणों के लिए आवश्यक नहीं है।
*(३६) नवजात शिशु की दीर्घायु के लिए होनेवाले जातकर्म होम के समय (वैदिक अग्नि के स्थापनार्थ जलती लकड़ी का ग्रहण कलिवर्ज्य है ।* गार्हपत्य अग्नि को प्रकट करने के लिए अश्वत्थ (पीपल) वृक्ष की दो टहनियाँ जिन्हें अरणी कहा जाता है, रगड़ी जाती हैं । कुछ शाखाओं में जातकर्म कृत्य में अग्नि उत्पन्न करने के लिए अरणियाँ रगड़ी जाती थीं, और उनसे उत्पन्न अग्नि आगे चलकर बच्चे चूड़ाकरण, उपनयन एवं विवाह के संस्कारों में प्रयुक्त होती थी। इनसे यह समझा जाता था कि बच्चा लम्बी आयु का होगा।
*(३७) ब्राह्मणों द्वारा लगातार यात्राएँ करते रहना कलिवर्ज्य है ।* महाभारत (शान्ति० २३।१५) का कथन है। कि जिस प्रकार सर्प बिल में छिपे हुए चूहों को निगल जाता है, उसी प्रकार यह पृथ्वी अविरोद्धा ( आक्रामक से न लड़ने वाले) राजा एवं प्रवासी (यात्रा करनेवाले) ब्राह्मण को निगल जाती है। प्रवासी-ब्राह्मण का तात्पर्य है उस ब्राह्मण से जो प्रसिद्ध आचार्यों के यहाँ विद्याध्ययन के लिए जाता रहता है । किन्तु यह कलिवर्ज्य उस लम्बी यात्रा से सम्बन्धित है जो निरुद्देश्य की जाती है, उससे नहीं जो विद्याध्ययन एवं धार्मिक कृत्यों के लिए की जाती है।
*(३८) अग्नि प्रज्वलित करने के लिए मुंह से फूकना कलिवर्ज्य है।* (४।५३) एवं ब्रह्मपुराण (२२१) (२०१) ने मुखाग्निधमन क्रिया को वर्जित ठहराया है, क्योंकि ऐसा करने से थूक की बूंदों से अग्नि अपवित्र हो सकती है। दत्त (आप० ध० स० १०५।१५।२०) ने कहा है कि वाजसनेयी शाखा में आया है कि अग्नि को मुख से फंककर उत्तेजित करना चाहिये, क्योंकि ऐसा उच्छ्वास विधाता के मुख से निकला हुआ समझा जाता है (पुरुषसूक्त, ऋग्वेद १०।१०।१३) । अतः हरदत एवं गाभिलस्मृति (१।१३५-१३६) के अनुसार श्रौत अग्नि मुख की फूंक से जलायी जा सकती थी, किन्तु स्मार्त अग्नि अथवा साधारण अग्नि इस प्रकार नहीं जलायी जानी चाहिये (उसे पंखे या बांस की फकनी से जलाना चाहिये) । कलिवर्ज्य उक्ति ने श्रौत अग्नि को भी मुख से उत्तेजित करना वर्जित माना है।
*(३९) बलात्कार आदि द्वारा अपवित्र स्त्रियों (जब कि उन्होंने प्रायश्चित्त कर लिया हो) की शास्त्रानुमोदित सामाजिक संसर्ग-सम्बन्धी अनुमति कलिवर्ज्य है ।* वसिष्ठ (२८१२-३) का कथन है-"जब स्त्री बलात्कार द्वारा या चोरों द्वारा भगायी जाने पर अपवित्र कर दी गयी हो तो उसे छोड़ना नहीं चाहिये, मासिक धर्म आरम्भ होने तक बाट देखनी चाहिये (तब तक उससे प्रायश्चित्त कराते रहना चाहिये) और उसके उपरान्त वह पवित्र हो जाती है।" यही बात अत्रि ने भी कही हैं । मत्स्यपुराण (२२७।१२६) इस विषय में अधिक उदार है और उसका कथन है कि बलात्कारी को मृत्युदंड मिलना चाहिये किन्तु इस प्रकार अपवित्र की गयी स्त्री को अपराध नहीं लगता। पराशर (१०।२७) ने कहा है कि यदि स्त्री किसी दुष्ट व्यक्ति द्वारा एक बार बलवश अपवित्र कर दी जाय तो वह प्राजापत्य व्रत के प्रायश्चित्त द्वारा पवित्र हो जाती है (मासिक धर्म होने के उपरान्त)। देवल जैसे स्मृतिकार ने कहा है कि किसी भी जाति की कोई स्त्री यदि म्लेच्छ द्वारा अपवित्र कर दी जाय और उसे गर्भ धारण हो जाय तो वह सान्तपन व्रत के प्रायश्चित्त से शुद्ध हो सकती है। किन्तु यह कलिवर्ज्य निर्दोष एवं अभागी स्त्रियों के प्रति कठोर है, क्योंकि यह प्रकट करता है कि प्रायश्चित्त के उपरान्त भी ऐसी स्त्रियाँ सामाजिक संसर्ग के योग्य नहीं होती।
*(४०) सभी वर्गों के सदस्यों से संन्यासी द्वारा शास्त्रानुमोदित भिक्षा लेना कलिवर्ज्य है।* स्मृतिमुक्ताफल (पृ० २०१, वर्णाश्रम) ने काठक ब्राह्मण, आरुणि, उपनिषद् पराशर (गद्य में) को इस विषय में उद्धृत कर कहा है कि यति सभी वर्गों के सदस्यों के यहाँ से भोजन को भिक्षा मांग सकता है। यही बात बौधा० घ० सू० (२।१०।६९) ने एक 'उद्धरण देकर कही है । वसिष्ठ (१०१७) ने कहा है कि यति को पहले से न चुने हुए सात घरों से भिक्षा मांगनी चाहिये और आगे (१०।२४) कहा है कि उसे ब्राह्मणों के घरों से प्राप्त भोजन पर ही जीना चाहिये । उपस्थित कलिवर्ज्य यतियों को भी भोजन के विषय में जाति-नियम पालन करने को बाध्य करता है।
*(४१) नवीन उदक (नये वर्षाजल) का दस दिनों तक सेवन न करना कलिवर्ज्य है।* हरदत्त (आप०ध.सू० १।५।१५२), भट्टोजि दीक्षित (चतुर्विंशतिमत, पृ० ५४), स्मृतिकौस्तुभ (पृ० ४७९) ने एक श्लोक उद्धृत किया है-"अजाएं (बकरियाँ), गायें, भैंसें एवं ब्राह्मण-स्त्रियाँ (संतानोत्पत्ति के उपरान्त) दस रात्रियों के पश्चात् शुद्ध हो जाती हैं और इसी प्रकार पृथ्वी पर एकत्र नवीन वर्षा का जल भी।" किन्तु इस कलिवयं के अनुसार वर्षाजल के विषय में दस दिनों की लम्बी अवधि अमान्य ठहरा दी गयी है । भट्टोजि दीक्षित ने एक स्मृति का सहारा लेकर कहा है कि उचित ऋतु में गिरा हुआ वर्षाजल पवित्र होता है किन्तु तीन दिनों तक इसे पीने के काम में नहीं लाना चाहिये । जब वर्षा असाधारण ऋतु में होती है तो उसका जल दस दिनों तक अशुद्ध रहता है और उसे यदि कोई व्यक्ति उस अवधि में पी ले तो उसे एक दिन और एक रात भोजन ग्रहण से वंचित होना चाहिये । भट्टोजि दीक्षित का कहना है कि कलिवर्ज्य वचन केवल दस दिनों की अवधि को अमान्य ठहराता है। किन्तु तीन दिनों तक न पीने के नियम को अमान्य नहीं ठहराता।
*(४२) ब्रह्मचर्यकाल के अन्त में गुरुदक्षिणा माँगना कलिवर्ज्य है।* प्राचीन आचार के अनुसार गुरुदक्षिणा के विषय में कोई समझौता नहीं होता था। देखिये बृहदारण्यकोपनिषद् (४।१२)। गौतम ( २१५४-५५ ) ने कहा है कि विद्याध्ययन के उपरान्त विद्यार्थी को जो कुछ वह दे सके, उसे स्वीकार करने के लिए गुरु से प्रार्थना करनी चाहिये, या गुरु से पूछना चाहिये कि वह उन्हें क्या दे और गुरुदक्षिणा देने या गुरु द्वारा आज्ञापित कार्य करने के उपरान्त या यदि गुरु उसे बिना कुछ लिये हुए घर जाने की आज्ञा दे दे, तो उसको (विद्यार्थी को) स्नान (ऐसे अवसर पर जो कृत्य स्नान के साथ किया जाता है) करना चाहिये । याज्ञ. (१/५१) ने भी ऐसी ही बात कही है। इन्हीं व्यवस्थाओं के कारण हमें प्राचीन साहित्य में ऐसे उपाख्यान उपलब्ध होते है जिनमें आचार्यों (गुरुओं) या उनकी पत्नियों की चित्र-विचित्र मांगों के दृष्टान्त व्यक्त हैं। यह कलिवर्ज्य वचन गुरुद्वारा अपेक्षित मांगों को अमान्य तो ठहराता है किन्तु विद्यार्थी द्वारा अपनी ओर से दी गयी दक्षिणा को वर्जित नहीं करता।
*(४३) ब्राह्मण आदि के घरों में शूद्र द्वारा भोजन आदि बनाना कलिवर्ज्य है ।* आप० ध० सू० (२।२।३।१-८) ने कहा है कि वैश्वदेव के लिए भोजन तीन उच्च वर्णों का कोई भी शुद्ध व्यक्ति बना सकता है और विकल्प से यह भी कहा है कि शूद्र भी किसी आर्य का भोजन बना सकता है, यदि वह प्रथम तीन उच्च वर्णों की देख-रेख में ऐसा कर जब वह अपने बाल, शरीर का कोई अंग या वस्त्र छूने पर आचमन करे, अपने शरीर एवं सिर के बाल, दाढ़ी एवं नाखून प्रति दिन या महीने के प्रति आठवें दिन या प्रतिपदा एवं पूर्णिमा के दिन कटाये तथा वस्त्र सहित स्नान करे । इस कलिवर्ज्य ने इस अनुमति को दूर कर दिया है।
*(२५) दूसरे के लिए अपने जीवन का परित्याग कलिवर्ज्य है ।* विष्णुधर्म सूत्र (३।४५) का कथन है कि जो लोग गौ, ब्राह्मण, राजा, मित्र, अपने धन, अपनी स्त्री की रक्षा करने में प्राण गँवा देते हैं वे स्वर्ग प्राप्त करते हैं।
उन्होंने आगे (१६।१८) यहाँ तक कहा है कि अस्पृश्य लोग (जो चारों वर्गों की सीमा के बाहर हैं) भी ब्राह्मण, गायों, स्त्रियों एवं बच्चों के रक्षार्थ प्राण गंवाने पर स्वर्ग प्राप्त करते हैं। 'आदित्यपुराण' (राजधर्मकाण्ड, में भी यही श्लोक है । यह कलिवर्ज्य मत आत्मत्याग की वर्जना इसलिए करता है कि इससे केवल स्वर्ग की प्राप्ति होती है । यह कलिवर्ज्य केवल द्विजों के लिए है, शूद्रों के लिए नहीं (कलिवर्ज्यविनिर्णय १।२०)।
*(२६) उच्छिष्ट (खाने से बचे हुए जूठ भोज्य पदार्थ) का दान कलिवर्ज्य है।* मधुपर्क प्राशन में सम्मानित अतिथि मधु, दूध एवं दही का कुछ भाग स्वयं ग्रहण करता था और शेष किसी ब्राह्मण (या पुत्र या छोटे भाई) को दे देता था। अब यह कलिवर्ज्य है ।
आप० ध० सू० (१।१।४।१-६) ने कहा है कि शिष्य गुरु का उच्छिष्ट प्रसाद रूप में पा सकता है, किन्तु गुरु को चाहिए कि वह वैदिक ब्रह्मचारियों के लिए वर्जित मधु या अन्य प्रकार का भोज्य पदार्थ शिष्य को न दे। याज्ञवल्क्य(१/२१३) का कथन है कि यदि कोई सुपात्र व्यक्ति दान ग्रहण कर उसे अपने पास न रखकर किसी और को दे देता है, तो वह उन उच्च लोकों की प्राप्ति करता है जो उदार दानियों को प्राप्त होते हैं।
*(२७) किसी विशिष्ट देवमूर्ति को (जीवन भर) विधिवत् पूजा करने का प्रण करना कलिवर्ज्य है।* इस प्रकार के वर्जन का कारण समझना कठिन है। इस विषय में भट्टोजि दीक्षित, कलिवर्ज्यविनिर्णय, समयमयूख एवं अन्य लोगों द्वारा उपस्थापित व्याख्याएँ संतोषप्रद नहीं हैं। निर्णयसिन्धु की व्याख्या अपेक्षाकृत अच्छी है, क्योंकि इसने इस वर्ज्य को पारिश्रमिक पर की जाने वाली किसी विशिष्ट प्रतिमा-पूजा तक सीमित रखा है।
'अपरार्क' स्मृति वचन उद्धृत कर *देवलक* की परिभाषा दी है और कहा है कि देवलक वह ब्राह्मण है जो किसी प्रतिमा का पूजन पारिश्रमिक के आधार पर तीन वर्षों तक करता है, जिसके लिए वह श्राद्धों के पौरोहित्य के लिए अयोग्य हो जाता है। स्पष्ट है, इस कथन के अनुसार देवलक ब्राह्मण वित्तार्थी है । मनु (३।१५२) ने देवलक को श्राद्धों तथा देवताओं के सम्मान में किये गये कृत्यों में निमन्त्रित किये जाने के लिये अयोग्य घोषित किया है । कुल्लूक ने देवल को उद्धृत कर इस विषय में कहा है कि जो व्यक्ति किसी देव स्थान के कोष पर निर्भर रहता है, उसे देवलक कहा जाता है। वृद्ध हारीत (८/७७-८०) के मत से केवल शिव के वित्तार्थी पूजक देवलक कहे जाते हैं।
*(२८) अस्थिसंचयन के उपरान्त अशौचवाले व्यक्तियों को छूना कलिवर्ज्य है।* शव-दाह के उपरान्त अस्थिसंचयन के दिन के विषय में धर्मशास्त्रकारों में मतभेद है । इसी कारण 'मिताक्षरा' ने अपने-अपने गृह्यसूत्रों के अनुसरण की बात कही है। 'मिताक्षरा' (याज्ञ० ३.१७) ने कहा है कि संवर्त (३८) के मत से अस्थियाँ पहले, तीसरे, सातवें या नवें दिन संचित को जानी चाहिये; विष्णु ध० सू० (१९।१०-११) के मत से चौथे दिन अस्थियाँ संगृहीत कर गंगा में बहा दी जानी चाहिये और कुछ लोगों के मत से उनका संग्रह दूसरे दिन होना चाहिए । “मिताक्षरा' ने पुनः (याज्ञ० ३।१८)
देवल का इसी विषय में उद्धरण देकर कहा है कि अशुद्धि की अवधि के तिहाई भाग की समाप्ति के उपरान्त व्यक्ति स्पर्श के योग्य हो जाते हैं और इस प्रकार चारों वर्गों के सदस्य क्रम से ३, ४, ५ एवं १० दिनों के उपरान्त स्पर्श के योग्य हो जाते हैं। और उपस्थित कलिवर्ज्य वचन ने यह सब वर्जित माना है और अशुद्धि के नियमों के विषय में कठिन नियम दिये हैं।
*(२९) यज्ञ में बलि होनेवाले पशु का ब्राह्मण द्वारा हनन कलिवर्ज्य है।* श्रौत यज्ञ में पशु की हत्या गला घोट कर को जाती थी। जो व्यक्ति श्वासावरोध कर अथवा गला घोट कर पशु-हनन करता था, उसे शामित्र कहा जाता था। कौन शामित्र हो, इस विषय में कई मत है ।
जैमिनि (३।७।२८-२९) ने स्वयं अध्वर्यु को शामित्र कहा है। किन्तु सामान्य मत यह है कि वह ऋत्विजों के अतिरिक्त कोई अन्य व्यक्ति होता था। आश्वलायन श्रौतसूत्र (१२।९।१२-१३) ने कहा है कि वह ब्राह्मण या अब्राह्मण हो सकता है। पशुयज्ञ कलियुग में निन्द्य या वर्जित मान लिए गये हैं, अतः ब्राह्मण का शामित्र होना भी वर्जित है।
*(३०) ब्राह्मण द्वारा सोमविक्रय कलिवर्ज्य है।* केवल ब्राह्मण ही सोमरस-पान कर सकते थे। सोम लता क्रय की जाती थी, जिसके विषय में प्रतीकात्मक मोल-तोल होता था । कात्या० श्रौ ० सू० (७।६।२-४) एवं आप० श्रौ० सू० (१०। २०।१२) के मत से प्राचीन काल में सोम का विक्रेता कुत्स गोत्र का कोई ब्राह्मण या कोई शूद्र होता होगा। मनु (११।६० एवं नारद (दत्ताप्रदानिक, ७) ने सोम-विक्रेता ब्राह्मण को श्राद्ध में निमंत्रित किए जाने के अयोग्य ठहराया है और उसके यहाँ भोजन करना वर्जित माना है।
मनु (१०८८) ने ब्राह्मण को जल, हथियार, विष, सोम आदि विक्रय करने से मना किया है ।
*(३१) अपने दास, चरवाहे (गोरक्षक), वंशानुगत मित्र एवं साझेदार के घर पर गृहस्थ ब्राह्मण द्वारा भोजन करना कलिवर्ज्य है ।* गौतम (१७।६), मनु (४।२५३ याज्ञ० (१/१६६) का कहना है कि ब्राह्मण इन लोगों का तथा अपने नापित (नाई) का भोजन कर सकता है।
हरदत्त (गौतम १७।६) एवं 'अपरार्क' (पु० २४४) का कथन है कि ब्राह्मण अत्यन्त विपत्तिग्रस्त परिस्थितियों में इन शूद्रों के यहाँ भोजन कर सकता है।
*(३२) अति दूरवर्ती तीर्थों को यात्रा कलिवर्ज्य है।* ब्राह्मण को वैदिक एवं गृह्य अग्नियाँ स्थापित करनी पड़ती थी। यदि वह दूर की यात्रा करेगा तो इसमें बाधा उत्पन्न होगी। आप० श्रौ० सू० (४।१६।१८) ने व्यवस्था दी है कि लम्बी यात्रा में अग्निहोत्री को अपने घर की अग्निवेदिका की दिशा में मुह कर मानसिक रूप से अग्निहोम एवं दर्श- पूर्णमास की सारी विधि करनी पड़ती है । देखिए इस विषय में गोभिलस्मृति (२/१५७) भी। स्मृतिकौस्तुभ का कहना है कि वह कलिवर्ज्य समुद्र पार के या भारतवर्ष की सीमाओं के तीर्थस्थानों के विषय में है। आश्चर्य है कि यह कलि वर्ज्य ब्राह्मण को दूरस्थ तीर्थ की यात्रा करने से मना तो करता है किन्तु उसे यज्ञों के सम्पादन द्वारा धन कमाने के लिए यात्रा करने से नहीं रोकता।
*(३३) गुरु की पत्नी के प्रति शिष्य को गुरुवत् वृत्तिशीलता कलिवर्ज्य है।* आप० ध० सू० (१२।७।२७), गौतम (२।३१-३४), मनु (२।२१०) एवं विष्णु (३३।१-२) ने कहा है कि शिष्य को गुरु की पत्नी या पत्नियों के प्रति वही सम्मान प्रदर्शित करना चाहिए जिसे वह गुरु के प्रति प्रदर्शित करता है (केवल प्रणाम करते समय चरण छूना एवं उच्छिष्ट भोजन करना मना है)।
शिष्य बहुधा युवावस्था के होते थे और गुरुपत्नी युवा हो सकती थी। अतः मनु (२/२१२, २१६ एवं २१७ विष्णु ३२।१३-१५) का कहना है कि बीस वर्ष के विद्यार्थी को गुरुपत्नी का सम्मान पैर छूकर नहीं करना चाहिए, प्रत्युत वह गुरुपत्नी के समक्ष पृथ्वी पर लेटकर सम्मान प्रकट कर सकता है, किन्तु यात्रा से लौटने पर केवल एक बार पैरों को छूकर सम्मान प्रकट कर सकता है। अतः स्पष्ट है कि यह कलिवर्ज्य मनु एवं विष्णु के नियमों का पालन करता है । 'स्मृतिकौस्तुभ' एवं 'धर्मसिन्धु' का कहना है कि इस कलिवर्ज्य से याज्ञ० (१/४९) का वह नियम कलियुग में कट जाता है जिसके अनुसार नैष्ठिक ब्रह्मचारी मृत्युपर्यंत अपने गुरु या गुरुपुत्रों या (इन दोनों के अभाव में) गुरुपत्नी के यहाँ रह सकता है ।
*(३४) आपत्तिकाल में ब्राह्मण द्वारा जीविका-साधन के लिए अन्य विधियों का अनुसरण कलिवर्ज्य है।* ब्राह्मण को जीविका (वृत्ति) के विशिष्ट साधन ये है-दानग्रहण, वेदाध्ययन एवं यज्ञों में पुरोहिती करना (पौरोहित्य) । (गौतम (१००२), आप० (२।५।१०।५), मनु (१०७६।१।८८), वसिष्ठ (२।१४) एवं याज्ञ० (१।११८)।)
प्राचीन काल से ही यह प्रतिपादित था कि यदि ब्राह्मण उपयुक्त साधनों से जीविका न चला सके तो आपत्तिकाल में क्षत्रिय एव वैश्य की वृत्तियाँ धारण कर सकता है (गौतम ७६-७, बौघा० २।२७७-८१, वसिष्ठ २।२२, मनु १०८१-८२ एवं मा० ३३५)। यह कलिवर्ज्य केवल पुस्तकों के पृष्ठों तक सीमित गया है। ब्राह्मणों ने सभी प्रकार की वृत्तियाँ अपनायी है और सम्प्रति यह नियम सम्मानित नहीं हो सका है।
*(३५) अग्रिम दिन के लिए सम्पत्ति (या अन्न) का संग्रह न करना कलिवर्ज्य है ।* मनु (४७) एवं याज्ञ. (१।१२८) ने ब्राह्मणों को चार भागों में बाँटा है-
(१) वे जो एक कुसूल भर अन्न एकत्र रखते हैं;
(२) जो एक कुम्भी भर अन्न एकत्र रखते है,
(३) जो केवल तीन दिनों की आवश्यकता की पूर्ति के लिए अन्न संग्रह करते हैं
(४) वे जो आनेवाले कल के लिए भी अन्न संग्रह नहीं करते।
स्मृतियों ने इनमें से प्रत्येक पूर्ववर्ती से उत्तरवर्ती को अधिक गुणशील माना है। कुसूल-धान्य के अर्थ के विषय में मतैक्य नहीं है, कोई इसे तीन वर्षों के लिए और कोई इसे केवल १२ दिनों के अन्न-संग्रह के अर्थ में लेते हैं, यही बात कुम्भीधान्य के विषय में भी है, किसी ने इसे साल भर के और किसी ने केवल ६ दिन के अन्नसंग्रह के अर्थ में लिया है। 'मिताक्षरा' (याज्ञ०१।१२८) का कथन है कि तीन दिनों या एक दिन के लिए भी अन्न-संग्रह न करना सभी ब्राह्मणों के लिए नहीं है, प्रत्युत यह उनके लिए है जो *यायावर* कहे जाते हैं । इस कलिवर्ज्य का तात्पर्य यह है कि कलियुग में अति दरिद्रता एवं संग्रहाभाव का आदर्श ब्राह्मणों के लिए आवश्यक नहीं है।
*(३६) नवजात शिशु की दीर्घायु के लिए होनेवाले जातकर्म होम के समय (वैदिक अग्नि के स्थापनार्थ जलती लकड़ी का ग्रहण कलिवर्ज्य है ।* गार्हपत्य अग्नि को प्रकट करने के लिए अश्वत्थ (पीपल) वृक्ष की दो टहनियाँ जिन्हें अरणी कहा जाता है, रगड़ी जाती हैं । कुछ शाखाओं में जातकर्म कृत्य में अग्नि उत्पन्न करने के लिए अरणियाँ रगड़ी जाती थीं, और उनसे उत्पन्न अग्नि आगे चलकर बच्चे चूड़ाकरण, उपनयन एवं विवाह के संस्कारों में प्रयुक्त होती थी। इनसे यह समझा जाता था कि बच्चा लम्बी आयु का होगा।
*(३७) ब्राह्मणों द्वारा लगातार यात्राएँ करते रहना कलिवर्ज्य है ।* महाभारत (शान्ति० २३।१५) का कथन है। कि जिस प्रकार सर्प बिल में छिपे हुए चूहों को निगल जाता है, उसी प्रकार यह पृथ्वी अविरोद्धा ( आक्रामक से न लड़ने वाले) राजा एवं प्रवासी (यात्रा करनेवाले) ब्राह्मण को निगल जाती है। प्रवासी-ब्राह्मण का तात्पर्य है उस ब्राह्मण से जो प्रसिद्ध आचार्यों के यहाँ विद्याध्ययन के लिए जाता रहता है । किन्तु यह कलिवर्ज्य उस लम्बी यात्रा से सम्बन्धित है जो निरुद्देश्य की जाती है, उससे नहीं जो विद्याध्ययन एवं धार्मिक कृत्यों के लिए की जाती है।
*(३८) अग्नि प्रज्वलित करने के लिए मुंह से फूकना कलिवर्ज्य है।* (४।५३) एवं ब्रह्मपुराण (२२१) (२०१) ने मुखाग्निधमन क्रिया को वर्जित ठहराया है, क्योंकि ऐसा करने से थूक की बूंदों से अग्नि अपवित्र हो सकती है। दत्त (आप० ध० स० १०५।१५।२०) ने कहा है कि वाजसनेयी शाखा में आया है कि अग्नि को मुख से फंककर उत्तेजित करना चाहिये, क्योंकि ऐसा उच्छ्वास विधाता के मुख से निकला हुआ समझा जाता है (पुरुषसूक्त, ऋग्वेद १०।१०।१३) । अतः हरदत एवं गाभिलस्मृति (१।१३५-१३६) के अनुसार श्रौत अग्नि मुख की फूंक से जलायी जा सकती थी, किन्तु स्मार्त अग्नि अथवा साधारण अग्नि इस प्रकार नहीं जलायी जानी चाहिये (उसे पंखे या बांस की फकनी से जलाना चाहिये) । कलिवर्ज्य उक्ति ने श्रौत अग्नि को भी मुख से उत्तेजित करना वर्जित माना है।
*(३९) बलात्कार आदि द्वारा अपवित्र स्त्रियों (जब कि उन्होंने प्रायश्चित्त कर लिया हो) की शास्त्रानुमोदित सामाजिक संसर्ग-सम्बन्धी अनुमति कलिवर्ज्य है ।* वसिष्ठ (२८१२-३) का कथन है-"जब स्त्री बलात्कार द्वारा या चोरों द्वारा भगायी जाने पर अपवित्र कर दी गयी हो तो उसे छोड़ना नहीं चाहिये, मासिक धर्म आरम्भ होने तक बाट देखनी चाहिये (तब तक उससे प्रायश्चित्त कराते रहना चाहिये) और उसके उपरान्त वह पवित्र हो जाती है।" यही बात अत्रि ने भी कही हैं । मत्स्यपुराण (२२७।१२६) इस विषय में अधिक उदार है और उसका कथन है कि बलात्कारी को मृत्युदंड मिलना चाहिये किन्तु इस प्रकार अपवित्र की गयी स्त्री को अपराध नहीं लगता। पराशर (१०।२७) ने कहा है कि यदि स्त्री किसी दुष्ट व्यक्ति द्वारा एक बार बलवश अपवित्र कर दी जाय तो वह प्राजापत्य व्रत के प्रायश्चित्त द्वारा पवित्र हो जाती है (मासिक धर्म होने के उपरान्त)। देवल जैसे स्मृतिकार ने कहा है कि किसी भी जाति की कोई स्त्री यदि म्लेच्छ द्वारा अपवित्र कर दी जाय और उसे गर्भ धारण हो जाय तो वह सान्तपन व्रत के प्रायश्चित्त से शुद्ध हो सकती है। किन्तु यह कलिवर्ज्य निर्दोष एवं अभागी स्त्रियों के प्रति कठोर है, क्योंकि यह प्रकट करता है कि प्रायश्चित्त के उपरान्त भी ऐसी स्त्रियाँ सामाजिक संसर्ग के योग्य नहीं होती।
*(४०) सभी वर्गों के सदस्यों से संन्यासी द्वारा शास्त्रानुमोदित भिक्षा लेना कलिवर्ज्य है।* स्मृतिमुक्ताफल (पृ० २०१, वर्णाश्रम) ने काठक ब्राह्मण, आरुणि, उपनिषद् पराशर (गद्य में) को इस विषय में उद्धृत कर कहा है कि यति सभी वर्गों के सदस्यों के यहाँ से भोजन को भिक्षा मांग सकता है। यही बात बौधा० घ० सू० (२।१०।६९) ने एक 'उद्धरण देकर कही है । वसिष्ठ (१०१७) ने कहा है कि यति को पहले से न चुने हुए सात घरों से भिक्षा मांगनी चाहिये और आगे (१०।२४) कहा है कि उसे ब्राह्मणों के घरों से प्राप्त भोजन पर ही जीना चाहिये । उपस्थित कलिवर्ज्य यतियों को भी भोजन के विषय में जाति-नियम पालन करने को बाध्य करता है।
*(४१) नवीन उदक (नये वर्षाजल) का दस दिनों तक सेवन न करना कलिवर्ज्य है।* हरदत्त (आप०ध.सू० १।५।१५२), भट्टोजि दीक्षित (चतुर्विंशतिमत, पृ० ५४), स्मृतिकौस्तुभ (पृ० ४७९) ने एक श्लोक उद्धृत किया है-"अजाएं (बकरियाँ), गायें, भैंसें एवं ब्राह्मण-स्त्रियाँ (संतानोत्पत्ति के उपरान्त) दस रात्रियों के पश्चात् शुद्ध हो जाती हैं और इसी प्रकार पृथ्वी पर एकत्र नवीन वर्षा का जल भी।" किन्तु इस कलिवयं के अनुसार वर्षाजल के विषय में दस दिनों की लम्बी अवधि अमान्य ठहरा दी गयी है । भट्टोजि दीक्षित ने एक स्मृति का सहारा लेकर कहा है कि उचित ऋतु में गिरा हुआ वर्षाजल पवित्र होता है किन्तु तीन दिनों तक इसे पीने के काम में नहीं लाना चाहिये । जब वर्षा असाधारण ऋतु में होती है तो उसका जल दस दिनों तक अशुद्ध रहता है और उसे यदि कोई व्यक्ति उस अवधि में पी ले तो उसे एक दिन और एक रात भोजन ग्रहण से वंचित होना चाहिये । भट्टोजि दीक्षित का कहना है कि कलिवर्ज्य वचन केवल दस दिनों की अवधि को अमान्य ठहराता है। किन्तु तीन दिनों तक न पीने के नियम को अमान्य नहीं ठहराता।
*(४२) ब्रह्मचर्यकाल के अन्त में गुरुदक्षिणा माँगना कलिवर्ज्य है।* प्राचीन आचार के अनुसार गुरुदक्षिणा के विषय में कोई समझौता नहीं होता था। देखिये बृहदारण्यकोपनिषद् (४।१२)। गौतम ( २१५४-५५ ) ने कहा है कि विद्याध्ययन के उपरान्त विद्यार्थी को जो कुछ वह दे सके, उसे स्वीकार करने के लिए गुरु से प्रार्थना करनी चाहिये, या गुरु से पूछना चाहिये कि वह उन्हें क्या दे और गुरुदक्षिणा देने या गुरु द्वारा आज्ञापित कार्य करने के उपरान्त या यदि गुरु उसे बिना कुछ लिये हुए घर जाने की आज्ञा दे दे, तो उसको (विद्यार्थी को) स्नान (ऐसे अवसर पर जो कृत्य स्नान के साथ किया जाता है) करना चाहिये । याज्ञ. (१/५१) ने भी ऐसी ही बात कही है। इन्हीं व्यवस्थाओं के कारण हमें प्राचीन साहित्य में ऐसे उपाख्यान उपलब्ध होते है जिनमें आचार्यों (गुरुओं) या उनकी पत्नियों की चित्र-विचित्र मांगों के दृष्टान्त व्यक्त हैं। यह कलिवर्ज्य वचन गुरुद्वारा अपेक्षित मांगों को अमान्य तो ठहराता है किन्तु विद्यार्थी द्वारा अपनी ओर से दी गयी दक्षिणा को वर्जित नहीं करता।
*(४३) ब्राह्मण आदि के घरों में शूद्र द्वारा भोजन आदि बनाना कलिवर्ज्य है ।* आप० ध० सू० (२।२।३।१-८) ने कहा है कि वैश्वदेव के लिए भोजन तीन उच्च वर्णों का कोई भी शुद्ध व्यक्ति बना सकता है और विकल्प से यह भी कहा है कि शूद्र भी किसी आर्य का भोजन बना सकता है, यदि वह प्रथम तीन उच्च वर्णों की देख-रेख में ऐसा कर जब वह अपने बाल, शरीर का कोई अंग या वस्त्र छूने पर आचमन करे, अपने शरीर एवं सिर के बाल, दाढ़ी एवं नाखून प्रति दिन या महीने के प्रति आठवें दिन या प्रतिपदा एवं पूर्णिमा के दिन कटाये तथा वस्त्र सहित स्नान करे । इस कलिवर्ज्य ने इस अनुमति को दूर कर दिया है।
प्रकाशितकोशों से अर्थ
सम्पादनशब्दसागर
सम्पादनकलिकर्ज्य वि॰ [सं॰] जिसका करना कलयुग में निषिद्ध है । विशेष—धर्मशास्त्रों में उस कर्म को कलिवर्ज्य कहते हैं जिसका करना अन्य युगों में विहित था, पर कलियुग में निषिद्ध या वर्जित है, जैसे अश्वमेध, गोमेध, देवरादि से नियोग, संन्यास, मांस का पिंडदान ।