प्रकाशितकोशों से अर्थ

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शब्दसागर

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कबंध संज्ञा पुं॰ [सं॰ कबन्ध]

१. पीपा । कंडल ।

२. बादल । मेघ ।

३. पेट । उदर ।

४. जल ।

५. बिना सिर का धड़ । रुंड । उ॰—(क) कूदत कबंध के कदंब बंब सी करत धावत देखावत हैं लाघौ राम बान के । तुलसी महेश विधि लोकपाल देवगण देखत विमान चढ़े कौतुक मसान से ।—तुलसी (शब्द॰) । (अ) अपनो हित रावरे से जो पै सूझै । तौ जनु तनु पर अछत सीस सुधि क्यों कबंध ज्यों जुझै ।—तुलसी (शब्द॰) ।

६. एक दानव जो देवी का पुत्र था । उ॰— आवत पंथ कबंध निपाता । तेहि सब कही सीय की बात ।— तुलसी (शब्द॰) । विशेष—इसका मुँह इसके पेट में था । कहते हैं, इंद्र ने एक बार उसे वज्र से मारा था और इसके सिर और पैर इसके पेट में घुस गए थे । इसे पूर्वजन्म का नाम विश्वावसु गंधर्व लिखा है । रामचंद्र जी से और इससे दंडकारण्य में युद्ध हुआ था । रामचंद्र जी ने इसके हाथ काटकर इसे जीता ही जमीन में गाड़ दिया था ।

७. राहु ।

८. एक प्रकार के केतुं । विशेष—ये संख्या में ९६ हैं और आकृति में कबंध से बतलाए गए हैं । ये काल के पुत्र माने गए हैं और इन के उदय का फल दारुण बतलाया गया है ।

९. एक गंधर्व का नाम ।

१०. एक मुनि का नाम ।