कङ्कण
प्रकाशितकोशों से अर्थ
सम्पादनशब्दसागर
सम्पादनकंकण संज्ञा पुं॰ [सं॰ कङ्कण]
१. कलाई में पहनने का आभूषण ककना । कड़ा । खडुवा । चूड़ा । उ॰—है कर कंकण दर्पण देषै ।—सुंदर॰ ग्रं॰, पृ॰ ५८६ ।
२. एक धागा जिसमें सरसों आदि की पुटली पीले कपड़े में बाँधकर लोहे के एक छल्ले के साथ विवाह के समय से पहले दुलहा या दुलहिन के साथ में रक्षार्थ बाँधते हैं । विशेष—विवाह में देशाचार के अनुसार चोंकर, सरसों, अजवायन आदि की नौ पोटलियाँ पीले कपड़ं में लाल ताँगे से बाँधते हैं । एक तो लोहे के छल्ले के साथ दूल्हा या दुलहिन के हाथ में बाँध दी जाती है और शेष आठ मूसल, चवकी, ओखली, पीढ़ा । हरिस, लोढ़ा कलश आदि में बाँधी जाती है ।
३. एक प्रकार का षाड़व राग जो गांधार से आरंभ होता है और जिसमें पंचम स्वर वर्जित है । इसमें प्रायः मध्यम स्वर का अधिक प्रयोंग होता है । इसके गाने का समय दोपहर के उपरांत संध्या तक होता है । क्रि॰ प्र॰—बाँधना ।—खोलना ।—पहनना ।—पहनाना ।
४. ताल के आठ भेदों में से एक ।
५. आभूषण । मंडल (को॰) ।
६. मुकुट । ताज (को॰) ।