औढर वि॰ [सं॰ अव+हिं॰ ढार या ढाल] जिस ओर मन में आवे उसी ओर ढल पड़नेवाला । जिसकी प्रकृति का कुछ ठीक ठिकाना न हों । मनमौजी । उ॰—देत न अघात रीझि जात पात आक ही के भोरानाथ जोंगी जब औढर ढरत हैं ।—तुलसी (शब्द॰) ।