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प्रकाशितकोशों से अर्थ सम्पादन

शब्दसागर सम्पादन

ओल ^१ संज्ञा पुं॰ [सं॰] सूरन । जिमीक'द ।

ओल ^२ वि॰ [सं॰ आर्द, प्रा॰ उल्ल] गीला । ओदा ।

ओल ^३ संज्ञा स्त्री॰ [सं॰ क्रोड]

१. गोद ।

२. आड़ । ओर ।

३. शरण । पनाह । उ॰—जाकै मीत नंदनंदन से ढकि लइ पीत पटोलै । सूरदास ताकौं डर काकौ हरि गिरिधर के ओलै ।—सूर॰ १ ।२५६ ।

४. किसी वस्तु या प्राणी का किसी दूसरे के पास जमानत में उस समय तक के लिये रहना जब तक उस दूसरे व्यक्ति को कुछ रुपया न दिया जाय या उसकी कोई शर्त न पूरी की जाय । उ॰—टीपू ने अपने दोनों लड़कों को ओल में लार्ड कार्नवालिस के पास भेज दिया ।—शिवप्रसाद (शब्द॰) क्रि॰ प्र॰—देना । में देना ।—में लेना ।

५. वह वस्तु या व्याक्ति जो दूसरे के पास जमानत में उस समय तक रहे जब तक उसका मालिक या उसके घर का प्राणी उस दूसरे आदमी को कुछ रुपया न दे या उसकी कोई शर्त पूरी न करे ।—(क) बाजे बाजे राजानि के बेटा बेटी ओल हैं ।—तुलसी ग्रं॰, पृ॰ १७६ । (ख) राजाहि चली छुड़ावै तहँ रानी होइ ओल ।—जायसी ग्रं॰, पृ॰ २८७ । (ग) बने बिसाल अति लोचन लोल । चितै चितै हरि चारु बिलोकनि मानौ माँगत हैं मन ओल ।—सूर॰, १० ।६३० । क्रि॰ प्र॰—देना । उ॰—एक ही ओल दै जाहु चली झगरो सगरो मिटि बात परै सल । घनानंद, पृ॰.. ।लिना उ॰— तोप रहकला माल सब लै ओल सिधाया ।—सूदन (शब्द) ।

६. बहाना । मिस । उ॰—बैठी बहू गुरु लोगन में लखि लाल गए करि कै कछु ओलो ।—देव (शब्द॰) ।

७. कोना । उ॰— घर में धरे सुमेरु से अजहूँ खाली ओल ।—सुंदर ग्रं॰, भा॰ १, पृ॰ ३१६ ।