प्रकाशितकोशों से अर्थ

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शब्दसागर

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ऐतरेय संज्ञा पु॰ [सं॰]

१. ऋग्वेद का एक ब्राह्मण । विशेष—इसमें ४० अध्याय और आठ पंचिकाएँ हैं । पहले १६ अध्यायों में अग्निष्टोम और सोमयोग का वर्णन है । १७-१८ वें अध्याय में गवामथन का विवरण है जो ३६० दिनों में पुरा होता है । १९२४ तक द्वादशाह यज्ञ की विधि और होता के कर्तव्य का वर्णन है, २५ वें अध्याय में अग्निहोत्र- विधान और भूलों के लिये प्रायश्चित्त आदि की व्यवस्था है । २६ से ३० अध्याय तक सोमयोग में होता के सहायक का कर्तव्य तथा । शिल्पशास्त्र के कुछ विषय वर्णित है । ३३ अध्याय से ४० अध्याय तक राजा को गद्दी पर बिठाने तथा पुरोहित के और और कामों का वर्णन है । शुनःशेष की तथा ऐतरेय ब्राह्मण की है । [को॰] ।

२. एक अरण्यक जो वानप्रस्थों के लिये है । विशेष—इसके पाँच अरण्यक अर्थात् भाग हैं । प्रथम भाग में, जिसमें पाँच अध्याय और २२ खंड है, सोमयाग का विचार है । दुसरे अरण्यक के ७ अध्याय और २६ खंड है जिनमें से तीसरे अध्याय में प्राण और पुरुष का विचार है और चार अध्यायों में ऐतरेय उपनिषद् है । तीसरे अरण्यक में (२ अध्याय १२ खंड) में संहिता के पदपाठ और क्रमपाठ के अर्थ को अलंकारों द्धारा प्रकट किया है । चैथे अरण्यक में एक अध्याय है जिसको आश्वलायन ने नष्ट किया था । पाँचवें अरण्य के ३ अध्याय और १४ खंड हैं जो शौनक ऋषि द्वारा प्रकट हुए हैं ।