एकावला
प्रकाशितकोशों से अर्थ
सम्पादनशब्दसागर
सम्पादनएकावला ^१ संज्ञा स्त्री॰ [सं॰]
१. एक अलंकार जिसमें पूर्व और पूर्व के प्रति उत्तरोत्तर वस्तुओं का विशेषण भाव से स्थापन अथवा निषेध दिखलाल जाय । विशेष—इसके दो भेद हैं । पहला वह जिसमें पूर्वकथित वस्तुओं के प्रति उत्तरोत्तर कथित वस्तु का विशेषण भाव से स्थापन किया जाय । जैसे—सुबुद्धि सो जो हित आपुनो लखै, हितौ वही ह्वै परदुःख ना जहाँ । परौ वहै आश्रित साधु भाव जो जहाँ रहैं केशव साधुता वही । यहाँ सुबुद्धि का विशेषण 'हित आपनो लखैं' और 'हित' का 'परदुःख ना जहाँ' रखा गया है । दूसरा वह जिसके पूर्वकथित वस्तु के प्रति उत्तरोत्तर कथित वस्तु का विशेषण भाव से निषेध किया जाय । जैसे— शोभित सो न सभा जहँ वृद्ध न, ते जे पढ़े कछु नाहीं । ते न पढ़े जिन साधु न साधत, दीह दया न दिखै जिन माँहीं । सो न दया जुन धर्म न सो जहँ दान बृथा हीं । दान न सो जहँ साँच न केशव, साँच न सो, जु बसै छल छाहिं ।
२. एक छंद । दे॰ 'पंकजवाटिका' ।
३. मोतियों की एक हाथ लंबी माला । एक तार की माला जिसमें मोतियों की संख्या नियत न हो । उ॰—'अभयकुमार ने एक क्षण में अपने गले से मुक्ता की एकावली निकालकर अंजलि में ले ली ।' इंद्र॰, पृ॰ १३४ । विशेष—कौटिल्य के अनुसार यदि इस माला के बीच में मणि होती थी तो इसकी 'यष्टी' संज्ञा थी ।