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प्रकाशितकोशों से अर्थ सम्पादन

शब्दसागर सम्पादन

उघरना पु क्रि॰ अ॰ [सं॰ उदघाटन, पा॰ उग्घाडण]

१. खुलना । आवरण का हटना (आवरण के संबंध में) । उ॰ (क) जैसे— सपनों सोइ देखियत तैसौ यह संसार । जात विलय ह्वै छिनक मात्र में उघरत नैन किवार । —सूर॰ (शब्द॰) । (ख) सूरदास जसुमति के आगे उघरि गई कलई । —सूर॰ (शब्द॰) ।

२. खुलना । आवरणरहित होना (आवृत के संबंध में) । उ॰—उघरहिं विमल विलोचन ही के । —मानस; ९ । १ नंगा होना । मुहा॰—उधरकर नाचना= लोकलज्जा छोड़कर खुल्लमखुल्ला मनमाना काम करना । उ॰—(क) अब हौं उघरि नच्यौ चाहत हौं तुमहि बिरद बिन करिहौं । —सूर, (विनय) १३४ । (ख) दुबिधा उर दूरि भई गई मति वह काँची । राधा तैं आपु बिबस भई उघरि नाँची । —सूर, १० । १९१० ।

४. प्रकट होना । प्रकाशित होना । उ॰— (क) छतौ नेहु कागर हियैं भई लखाइ न टाँकु । बिरह तचैं उघरयौ सु अब सेहुड़ कैसौ आँकु । —बिहारी र॰, दो॰ ४५७ । (ख) ज्यों ज्यों मद लाली चढ़ै त्यों त्यों उघरत जाय । —बिहारी (शब्द॰) ।

५. असली रूप में प्रकट होना । असलियत का खुलना । भंडा फूटना । उ॰— (क) चरन चोंच लोचन रंगौ चलौ मराली चाल । छीर नीर बिबरन समय बक उघरत तेहि काल । —तुलसी (शब्द॰) । (ख) उघरहिं अंत न होइ निबाहू । कालनेमि जिमि रावन राहू । । —मानस, १ । ७ । (ग) दाई आगैं पेट दुरावति, वाकी बुद्धि आजु मैं जानी । हम जातहिं वह उधारि परैगी दूध दूध पानी सो पानी— सूर॰, १० । १७२३ ।

उघरना पु क्रि॰ स॰ [सं॰ उदघाटन, प्रा॰ उग्घाडण]

१. खोलना । ढाँकनेवाली चीज को दूर करना (आवरण के संबंध में) । उ॰—आवत देखहिं विषय बयारी । ते हटि देहि कपाट उघारी । । —मानस, ७ । ११८ ।

२. खोलना । आवरणरहित करना । नंगा करना (आवृत के संबंध में) । उ॰—(क) तब शिव तीसर नयन उधारा, चितवत काम भयेउ जरि छारा ।—मानस, १ । ८७ । (ख) विदुर शस्त्र सब तहीं उतारी, चल्यो तीरथनि मुंड उघारी । —सूर॰ (शब्द॰) । (ग) मनहुँ काल तरवारि उघारी । —तुलसी (शब्द॰) ।

३. प्रकट करना । प्रकाशित करना ।

४. कुआँ खोदने के लिये जमीन की पहली खोदाई ।