प्रकाशितकोशों से अर्थ

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शब्दसागर

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आर ^१ संज्ञा पुं॰ [सं॰; तुल॰ अं॰ 'ओर']

१. वह लोहा जो खान से निकाला गया हो, पर साफ न किया गया हो । एक प्रकार का निकृष्ट लोहा ।

२. पीतल ।

३. किनारा ।

४. कोना । यौ॰—द्धादशार चक्र । षोड़सार चक्र । विशेष—इस प्रकार के द्वादश कोण और षोडश कोण के चक्र बनाकर तांत्रिक लोग पूजन करते हैं ।

५. पहिए का आरा ।

६. हरताल ।

आर ^२ संज्ञा स्त्री॰ [सं॰ अल=डंक]

१. लोहे की पतली कील जो साँटे या पैने में लगी रहती है । अनी । पैनी ।

२. नर मुर्गे के पंजे का काँटा जिससे लड़ते समय वे एक दूसरे को घायल करते हैं ।

३. बिच्छू भिड़ और मधुमक्खी आदि का डंक । उ॰—बीछी आर सरिस टेई मूछैं सबही की ।—प्रेमघन, भा॰१, पृ॰ ८० ।

आर ^३ संज्ञा स्त्री॰ [सं॰ आरा] चमड़ा छेदने का सूआ या टेकुआ । सुतारी ।

आर ^४ संज्ञा पुं॰ [देश.]

१. ईख का रस निकालने का कलछा । पल्ली । ताँबी ।

२. बर्तन बानने के साँचे में भीतरी भाग के ऊपर मुँह पर रखा हुआ मिट्टी का लोंदा जिसे इस तरह बढ़ाते हैं कि वह अँवठ के चारों ओर बढ़ आता है ।

आर ^५ † संज्ञा पुं॰ [हिं॰ अड़] अड़ । जिद । हठ । उ॰—(क) अँखियाँ करत हैं अति आर । सुंदर श्याम पाहुने के मिस मिलि न जाहु दिन चार (शब्द॰) । क्रि॰ प्र॰—करना—जिद करना । उ॰—कबहुँक आर करत माखन की कबहुँक मेख दिखाइ बिनानी ।—सूर (शब्द॰) ।—ठानना । उ॰—हरीचंद बलिहारी आर नहिं ठानो ।— भारतेंदु ग्रं॰, भा॰२, पृ॰ ४६८ ।

आर ^६ संज्ञा स्त्री॰ [अ॰]

१. तिरस्कार । घृणा । क्रि॰ प्र॰—करना । जैसे, भले लोग बदलनों से आर करते हैं ।

२. अदावत । बैर जैसे,—न जाने वे हमसे क्यों आर रखते हैं ।

३. शर्म । हया । लज्जा । उ॰—कुछ तुम्हीं मिलने से बेजार हो मेरे, वर्ना, दोस्ती नंग नहीं, ऐब नहीं, आर नहीं ।—शेर॰, भा॰१, पृ॰ ११२ । क्रि॰ प्र॰—आना । जैसे,—इतने पर भी उसे आर नहीं आती ।