प्रकाशितकोशों से अर्थ

शब्दसागर

अंगांगिभाव संज्ञा पुं॰ [सं॰ अङ्गाङ्गिभाव]

१. अवयव और अवयवी का परस्पर संबंध । उपकारक उपकार्य-संबंध । अंश का संपुर्ण के साथ आश्रय और आश्रयी रुप संबंध अर्थात् ऐसा संबंध कि उस अंश का अवयव के बिना संपुर्ण वा अवयवी की सिद्धि न हो; जैसे त्रिभुज की एक भुजा का सारे त्रिभुज के साथ संबंध ।

२. गीण और मुख्य़ का परस्पर संबंध ।

३. अलंकार में संकर का एक भेद । जहां एक ही पद्य में कुछ अलंकार प्रधान रुप आएँ और उनके आश्रय या उपकार से दुसरे और भी आ जाएँ । उ॰—अब ही तो दिन दस बीते नाहि नाह चले अब उठि आई कहँ कहाँ लौ बिसरिहैं । आओ खेलें चौपर बिसारै मतिराम दुख खेलन को आई जानि विरह को चुरि है । खेलत ही काहु कह्यो जुग फुटौ प्यारी । न्यारी भई सारी को निबाह होनो दुर है । पासे दिए डारि मन साँसे ही में बुड़ि रह्यो बिसरयो न दुख, दुख दुनो भरपुर है । यहां 'जुग जनि फुटौ' वाक्य के कारण प्रिय का स्मरण हो आया इससे स्मरण अलंकार और इस स्मरण के कारण बिरहनिवृत्ति के साधन से उलटा दुःख हुआ अर्थात् 'विषम' अलंकार की सिद्धि हुई । अतः यहाँ स्मृति अलंकार विषम का अंग है ।