प्रकाशितकोशों से अर्थ

शब्दसागर

अगति ^१ संज्ञा स्त्री॰ [सं॰]

१. बुरी गति । दुर्गति । दुर्दशा । दुरवस्था । उ॰—ऋधि सिधि चारि सुगति जा बिनु गति अगति ।—तुलसी ग्रं॰, पृ॰३६० । क्रि॰ प्र॰— करना । —होना ।

२. गति का उलटा । मरने के पीछे शव की दाह आदि किया का यथाविधि न होना । मृत्यु के पीछे की बुरी दशा । मोक्ष की अप्रप्ति । बंधन । नरक । उ॰—काल कर्म गति अगति जीव की सब हरि हाथ तुम्हारे । —तुलसी (शब्द॰) । । क्रि॰ प्र॰— करना उ॰— कहों तो मारि संहारि निशाचर रावण करौ अगति को । —सूर॰(शब्द॰) ।

३. स्थिर या अचल पदार्थ । केशव के अनुसार २८ वर्ण्य विषय है । इनमें से जो स्थिर या अचल हों उनकी अगति संज्ञा दी हैं; यथा—अगति सिंधु गिरि ताल तरु वापी कूप बखानि । —केशव (शब्द॰) । उ॰—कौलौं राखौं थिर वपु, वापी कूप सर सम, हरि बिनु कीन्हें बहु बसिर व्यतीत मैं । —केशव (शब्द॰) ।

४. गति का अभाव । स्थिरता । उ॰— न तो अगति ही हैं न गति आज किसी भी ओर, इस जीवन के झाड़ में रही एक झकझोर । — साकेत, पृ, २८९ ।

५. पहुँच या सहायता की कमी (को॰) ।

६. पूर्णता का अभाव या कमी (को॰) ।

अगति ^२ वि॰ १ जिसकी गति न हो । निरुपाय । अगतिक । उ॰— इस पिता ही की चिंता के पास, मुझ अगति को भी मिले चिरवास । — साकेत, पृ, २०० ।

२. सहायता का । असहाय (को॰) ।