धान

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प्रकाशितकोशों से अर्थ सम्पादन

शब्दसागर सम्पादन

धान ^१ संज्ञा पुं॰ [सं॰ धान्य] तृण जाति का एक पौधा जिसके बीज की गिनती अच्छे अन्नों में है । शालि । व्रीहि । विशेष— भारतवर्ष तथा आस्ट्रेलिया के कुछ भागों में यह जंगली होता है । इसकी बहुत अधिक खेती भारत, चीन, बरमा, मलाया, अमेरिका (संयुक्त राज्य और ब्रेजिल) तथा थोड़ी बहुत इटली और स्पेन आदि युरोप के दक्षिणी भागों में होती है । इसके लिये तर जमीन और गरमी चाहिए । यह संसार के उन्हों गरम भागों में होता है जहाँ वर्षा अच्छी होती है या सिंचाई के लिये खूब पानी मिलता है । धान की खेती बहुत प्राचीन काल से होती आ रही है इसी से उसके अनंत भेद हो गए है । ऋग्वेद में धाना और धान्य शब्द आए हैं । धाना शब्द का अर्थ सायण ने कुटा हुआ जौ किया है, पर 'धान्य' का अर्थ दुसरा नहीं किया है । इसके अतिरिक्त अथर्ववेद, शांखायन ब्राह्मण, शतपथ ब्राह्मण, कात्यायन श्रोतसूत्र इत्यादि में धान्य शब्द का प्रयोग मिलता है । पर काहीं धान्य शब्द अन्न- मात्र के अर्थ में भी हैं । तैत्तिरीय संहिता, वाजसनेय संहिता आदि में व्रीहि शब्द बार बार आया है । कृष्णयजुर्वेद में शुक्ल और कृष्ण व्रीहि का उल्लेख है । फारसी में भी 'विरंज' शब्द चावल के लिये वर्तमान है जो निश्चय हो व्रीहि से संबंध रखता है । उससे स्पष्ट है कि प्राचीन आर्यों को धान का पता उस समय भी था जब उनका विस्तार मध्य एशिया तक था । ईसा से २८०० वर्ष पूर्व शिवनंग राजा के समय में चीन में एक त्यौहार मनाया जाता था जिसमें ५ प्रकार के अन्नों की बुआई आरंभ होती थी । उन पाँच अन्नों में धान का नाम भी है । चीन में धान जंगली भी पाए जाते है और धान की खेती भी बहुत दिनों से होती आ रही है ।

धान पु ^२ संज्ञा स्त्री॰ [सं॰ धन्या] दे॰ 'स्त्री' । उ॰— दुख भीनी पंजर हुई । धान नू भावई तिज्या सरि न्हाण ।—वी॰ रासी, पृ॰ ६७ ।

धान पु ^३ संज्ञा पुं॰ [हिं॰] दे॰ 'ध्यान' । उ॰— धान न भावे नींद न आवे, बिरह सतावे कोय ।—संतवाणी॰, पृ॰ ७१ ।