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प्रकाशितकोशों से अर्थ

शब्दसागर

गति अटपटी, चटपट लखी न जाय । जो मन की खटपट मिटै, अघट भए ठहराय । —कबीर (शब्द॰) । (ख) जहँ तहँ मुनि- वर निज मर्यादा थापी अघट अपार—सूर॰ (शब्द॰) ।

३. पूरा । पूर्ण । उ॰—सूर स्याम सुजान सुकिया अघट उपमा दाव । —सा॰ लहरी, पृ॰ १ ।

गति । सरण ।

३. अधिष्ठान [को॰] ।

४. लटकी हूई वस्तु वा पदार्थ [को॰] ।

गति संज्ञा स्त्री॰ [सं॰]

१. एक स्थान से दूसरे स्थान पर क्रमश; जाने की क्रिया । निंरतर स्थानत्याग की परंपरा । चाल । गमन । जैसे—वह बड़ी मंद गति से जा रहा है ।

२. हिलने डोलने की क्रिया । हरकत । जैसे—उसकी नाड़ी की गति मंद है ।

३. अवस्था । दशा । हालत । उ॰—भइ गति साँप छछूं दर केरी । तुलसी (शब्द॰) ।

४. रूप रंग । वेष । उ॰—तन खीन, कोउ पीन पावन कोउ अपावन गति धरे ।—तुलसी (शब्द॰) ।

५. पहुंच । प्रवेश । दखल । जैसे (क) मनुष्य की क्या बात, वहाँ तक वायु की भी गति नहीं है । (ख) राजा के यहाँ तक उनकी गति कहाँ । (ग) इस शास्त्र में उनकी गति नहीं है ।

६. प्रयत्न की सीमा । अंतिम उपाय । दौड़ । तदबीर । जैसे उसकी गति बस यहीं तक थी, आगे वह क्या कर सकेगा ।

७. सहारा । अवलंब । शरण । उ॰—तुमहिं छाँड़ि दूसरि गति नाहीं । बसहु राम तिनके उर माहीं ।—तुलसी (शब्द॰) ।

८. चाल । चेष्टा । करनी । क्रियाकलाप । प्रयत्न । जैसे—उसकी गति सदा हमारे प्रतिकूल रहती है ।

९. लीला । विधान । माया । उ॰— दयानिधि, तेरी गति लखि न परे ।—सूर (शब्द॰)

१०. ढंग । रीति । चाल । दस्तूर । जैसे—वहाँ की तो गति ही निराली है ।

११. जीवात्मा का एक शरीर से दूसरे शरीर में गमन । विशेष—हिंदू शास्त्रों के अनुसार जीव की तीन गतियाँ है— उर्ध्वगति (देवयोनि), मध्यगति (मनुष्य योनि) और अधोगति (तिर्यक्योनि) । जैन शास्त्रों में गति पाँच प्रकार की कही गई है—नरकगति, तिर्यक्गति, मनुष्यगति, देवगति और सिद्धगति ।

१२. मृत्यु के उपरांत जीवात्मा की दशा । उ॰—(क) गीध अधम खग आमिष भोगी । गति दीन्हीं जो जाँचत जोगी ।— तुलसी (शब्द॰) । (ख) साधुन की गति पावत पापी ।— केशव (शब्द॰) ।

१३. मृत्यु के उपरांत जीवात्मा की उत्तम दशा । मोक्ष । मुक्ति । जैसे पापियों की गति नहीं होती । उ॰—है हरि कौन दोष तोहिं दीजै । जेहि उपाय सपने दुर्लभ गति सोइ निसि बासर कीजै ।—तुलसी (शब्द॰) ।

१४. कुशती आदि के समय लड़नेवालों के पैर की चाल । पैतरा । उ॰—जे मल्लयुद्धहि पेच बत्तिस गतिहु प्रत्यगतादि । ते करत लंकानाथ बानरनाथ ह्वै न प्रमादि ।—रघुराज (शब्द॰) ।

१५. ग्रहों की चाल, जो तीन प्रकारी की होती है—शीध्र मंद और उच्च ।

१६. ताल और स्वर के अनुसार अंगचालन । उ॰—(क) सब अँग करि राखी सुघर नायक नेह सिखाय । रस जुत लेति अनंत गति पुतरी पातुर राय ।—बिहारी (शब्द॰) । (ख) कविहिं अरथ आखर बल साँचा । अनुहरि ताल गतिहि नट नाचा ।—तुलसी (शब्द॰)

१५. सितार आदि बाजने में कुछ बोलों का क्रमबद्ध मिलान । दे॰ 'गत' ।

१८. रिसनेवाला व्रण । नासूर [को॰] । ज्ञान [को॰] ।