प्रकाशितकोशों से अर्थ

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शब्दसागर

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कनेर संज्ञा पुं॰ [सं॰ कणेर] एक पेड़ । विशेष—इसकी पत्तियाँ एक बित्ता लंबी और आध अंगुल से एक अंगुल तक चौड़ी और नुकीली होती हैं । ये कड़ी, चिकनी और हरगे हरे रंग की होती है तथा दो दो पत्तियाँ एक साथ आमने सामने निकलती हैं । डाल में से सफेद दूध निकलता है । फूलों के विचार से यह दो प्रकार का है, सफेद फुल का कनेर और लाल फूल का कनेर । दोनों प्रकार के कनेर सदा फूलते रहते हैं और बड़े विषैले होते हैं । सफेद फूल का कनेर अधिक विषैल माना जाता है । फुलों के झड़ जाने पर आठ दस अंगुल लंबी पतली पतली फलियाँ लगती हैं । फलियों के पकने पर उनके भीतर से बहुत छोटे छोटे मदार की तरह रूई में लगे निकलते हैं । कनेर घोड़े कि लिये बडा़ भयंकर विष है; इसी लिये संस्कृत दोषों में इसके अश्वघ्न, हयमार, तुरंगारि आदि नाम मिलते हैं । एक और पेड़ होता है जिसकी पत्तियाँ और फल कनेर ही के ऐसे होते हैं । उसे भी कनेर कहते है, पर उसकी पत्तियाँ पतली छोटी और अधिक चमकीली होती हैं । फूल भी बड़ा और पीले रंग का होता है तथा हलकी लालिमा से युक्त पीले रंग का भी होता है । फुलों के गिर दाने पर उसमें गोल गोल फल लगते है जिनके भीतर गोल गोल चिपटे बीज निकलती हैं । वेद्यक में दो प्रकार के और कनेर लिखे हैं—एक गुलाबी फूल का, दूसरा काले रंग का । गुलाबी फूलवाले कनेर का लाल कनेर ही के अंतर्गत समझना चाहिए; पर काले रंग का कनेर सिवाय निघंटु रत्नाकर ग्रंथ के और कहीं देखने या सुनने में नहीं आया है । वेद्यक में कनेर गरम, कृमिनाशक तथा घाव, कोढ़ और फोड़े फुंसी आदि को दुर करनेवाला माना गया है । पर्या॰—करवीर । शतकुंभ । अश्वामारक । शतकुंद । स्थल— कुमुद्र । शकुद्र । चंडात । लगुद । भूतद्रावी ।